Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 63
________________ रखते हैं, जिसी से यहां शांति के कुछ चिन्ह भी है और यह सब प्रभाष जातीयना अथवा जाति भेद का है । यदि यह सब उठाकर सबको एकाकार बनाया गया तो जो अहिंसक हैं वे भी हिंसक बन जायंगे और साधनोपायाभाव से हिंसक कभी अहिंसक न बन सकेंगे क्योंकि जातिबंधन टूट जाने के अतिरिक्त धर्म को भी सर्वथा तिलांजुलि हो जायगी तब स्वार्थ वासना को पूर्ति के अति. रिक्त और कुछ भी न रह जायगा । इसलिये यह सुनिश्चित है कि जातिबंधन को तोड़ना भारतीय संस्कृति के लिए सर्वथा अनर्थकारी ही सिद्ध होगा। समानधर्मता और विवाह । कुछ लोगों तथा विद्वानों का भी कहना है कि एक धर्म धारण करने वाली उप जातियों में विवाह-संबंध होने लगे तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये । इस पर इतना ही कहना है कि भाज के पाश्चात्य प्रवाही युग में यदि कोई आपति करे भी तो वह स्वयं आपत्तिग्रस्त हो सकता है क्योंकि सरकार की नीति भारतीव संस्कृति के संरक्षण की ओर नही। भारतीय संस्कृति के संरक्षण का नाम बहुत लोग लेते अवश्य हैं परन्तु भारतीय-संस्कृति का स्वरूप अपना मनमाना ही निश्चित और निर्धारित करते हैं। वास्तव में सबी और आदर्श भारतीय संस्कृति "जाति वर्ण व्यवस्था" ही है और वह है जन्म से । इसी सस्कृति के पीछे भारतवर्ष अब तक जीवित रह सका है । वह परतन्त्र भी हुआ तो अपनी प्रस

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