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गुण से इनका अपने आप पालन करता है, उसे इनकी शिक्षा की
आवश्यकता नहीं । आजकल के समय की बात दूसरी है कि कुछ वालक बिगड़ते हों, जिसमें भी जाति व धन की शिथिला का ही दोष है। आज से २५, ३० वर्ष पहले की बात याद है कि जैन कुलोत्पन्न एक भी व्यक्ति वैसा हिसक नहीं दीखता जैसा कहीं कहीं अभी देखा जाता है। वह सब जातीयता को अर्गला थी। श्राज उस अर्गला के शिथिल होजाने से हो अनर्थों का समावेश दीखने लगा है।
जैनेतरों में जैन समाज जितनी भी अहिंसा नहीं दीखती, सिखलाने से ही नहीं आती। एक बात और भी कह देना अनुचित न होगा कि संख्या के अनुपात से हिंसा चोरी आदि निषिद्ध अपराधों के कारण जैन लोग कितनी सजा भोगते हैं तथा अन्यान्य कितने ? जातीय प्रभाव से जैन का हृदय ही किसी के प्राणांत करने का नहीं होता । उसके रक्त में ही हिंसा-पाप का डर है। जैनों से कम, अन्य अहिंसक समाज में वह प्रवृत्ति देखी जाती है। वह भी जातोय प्रभाव से ही हैं। कई लोग जातीय प्रभाव से ही मांस मदिरादि का सेवन करते हैं और घोर हिंसा करते भी नही चूकते । यदि जाति भेद को उठा दिया गया तो सब के सब हिंसक
आदि होजाएंगे और हिंसा जनित पापों के फल से जैसे आज हिंसक पाश्चात्य देश दुखी और चिन्ता युक्त है, भारत भी होजायगा। भारत में जो सुख शांति है वह धर्म से ही है। भारत के लोग कुछ भी वस्तु -स्वभावोपलब्धि की भावना और प्रवृत्ति भी