________________
४४
हैं। धर्म से इनके लाभ की अपेक्षा करना धर्म क नत्व की पूर्ण अनभिज्ञता है। एक सीमा अथवा दायरे में रह कर सांसारिक मानव जीवन को चलाना प्रत्येक जैन धर्मी का उद्देश्य और प्रत्रर्तन होना चाहिये और उसी का प्रतीक यह जाति बन्धन है । Sarfa बन्धन तोड़ कर विषय भोगों की अनर्गलता करना जैन धर्म के इसलिए भी अनुकूल नहीं कि उस से भोग और असंयम की अनर्गल वृद्धि हती है ।
जातियां और व्यवस्था ।
जिस प्रकार समूचे भारत देशकी शासन व्यवस्था चनाने के लिए अलग २ प्रांतों का निर्माण है उसी प्रकार मनुष्य जाति एक होने पर भ तकस्तर के संरक्षण की व्यवस्था के लिये अलग २ जातियों की भी आवश्यकता है। प्रांतो में जिस प्रकार अलग २ कमिश्नरियां, जिले, तहसीलें आदि होती हैं उसी प्रकार छोटी जातियों की व्यवस्था की गई थी। जिस प्रकार भिन्न २ प्रांतों को निर्माण बिना शासन व्यवस्था सुन्दरतया नहीं चल सकती उसी प्रकार त्याग संयमादि भी जाति व्यवस्था के बिना सुचारु रूप से नहीं रह सकते । त्याग और संयम आदि की रक्षा के लिये विषय भोगों में क्षेत्र सीमा के निर्धारण के बिना काम नहीं चल
सकता ।
जैनधर्मी के लिये बारह प्रकार के व्रतों को धारण करना बतलाया गया है । इन बारह व्रतों में एक 'भोगोपभोग परिमाण'