Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 46
________________ पाश्चात्य विचारों और आघरण से प्रभावित होती गई । सारी जनता नहीं भी हुई तो उसकी अकर्मण्यता और परमुखापेक्षिता से दूसरे लोगों ने अनुचित लाभउठाया और उन्हीं का बोलवाला तथा राज पाट होगया। पांचो इन्द्रियों में स प्रथम कीदो स्पर्शन और रसन इन्द्रियों के विषय बहुन प्रबल और प्रभावक होते हैं। इन दोनो इन्द्रियों क विषयों की प्रवृत्ति बढाने में नारी और भोजन प्रधान है। नारी और भोजन में जितनी संयम प्रवृत्ति होगी उतनाही मानव जीवन सुखमय व्यतीत होगा । नारी और भोजन की श्रनगेल प्रवृति से ही मानव जीवन दुःख-संकर-चितामय जाता है और पीछेभी मुक्ति लाभ नहीं होता इस लिये मानव जीवन सुखमय बनाने के लिए नारी और भोजनमें सीमा को निर्धार करना परमावश्यक और परमोपयोगी है। इनमें सीमा का निर्धारणही जातिव्यवस्था अथवा ज्ञातिबंधन है । जाति-सीमामें इन कार्यों के चलते रहने से मानव अनौचित्य पूर्ण विषय-प्रवृत्ति से बहुत कुछ बच सकता है। आज बहुत से नेता तथा सरकारी गाड़ी के संचालक भी नतिकस्तर के संरक्षण और उत्थान के लिए कितना कहते और उपदेशादेश देते हैं परन्तु लाभ के बदले उलटी हानि ही होती देखी है। ज्यों ज्यों दवा होती है त्यों त्यों मर्ज बढ़ता है । जिसका कारण यही है कि स्वयं वे नेताजन सदाचार भूषित नहीं है । ब्लेकमार्के

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