Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 44
________________ - ३६ - हो सकता और न यद्वा तद्वा भोज्य ग्रहण ही। कोई भी व्यक्ति यथेष्ट स्त्री का ग्रहण चाहता हुआ भी जाति बंधन के कारण ही रुकता है और जो कुछ प्राप्त है उसी पर संतोष ग्रहण कर लेता है। अथवा अनुपादेय के ग्रह ए से बच जाता है। इच्छा होते हुए भी वह अनेक अनर्थों से जाति बन्धन और जा तच्युति आ द के भय से बच जाता है । लोक-लज्जा, जाति-भय आदि भी ऐसे तत्व हैं जिनकी लोग मजान तो उड़ाते हैं परन्तु ये तत्व भी बड़े भारी उपयोगी हैं और देश की प्रतिष्ठा रखने वाले हैं। जिस देश में जितने सदाचारी होंगे वह देश उतना ही प्रतिष्ठा पात्र होगा। आज भारत देश के नैतिकस्तर के निपात से सभी देशनेता आंसू बहाते हैं। बड़े २ व्याख्यान देते हैं परन्तु फल इसीलिए नहीं निकलता कि इंद्रिय विजय के साधन नहीं है और इंद्रिय विजयके साधनों को मिटाया जारहा है। आम जाति की बात तो दूर रही, युषक और युवतियां माता पिता और गुरुजनों का कहना नहीं मानते और उन्हें मुर्ख समझते हैं। स्वबुद्धिवाद को ही महत्व दिया जा रहा है। स्वबुद्धिवाद के ही र्गत गाये जारहेहैं । अपनी बुद्धि का उपयोग भी परमावश्यक और उपादेय है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अपनी बुद्धि के आगे और किसी की बुद्धिका कोई महत्व ही नहीं : आज का बड़े से बड़ा नेता कहलाने वाला भी यही कहताहै कि अपनी बुद्धि के आगे किसी की कोई बात न मानो । प्राचीन

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