Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 43
________________ कारणों से जातियों में परस्पर विरोध फैल कर अलग अलग टुकडियां बनाने की नौबत आवे उन कारणों को वहीं शांत कर देने का प्रयत्न कर देना चाहिये और इस सुन्दरता से करना चाहिये कि जिससे जाति में असदाचार और दुराचारों को प्रोत्साहन भी न मिले और पारस्परिक वैमनस्य भी न बढे । रही पुरानी जातियों की सत्ता की बात-तो इनके अस्तित्व के लाभों को भी सोचना पड़ेगा और इसके लिये बड़ी भारी निष्पक्षता, धर्म बुद्धि और विचार शीलता की आवश्यकता है। केवल पाश्चात्य देशों की प्रणाली देख कर उससे भावुकता के कारण प्रभावित होकर जैन धर्म में जातिवाद की निःसारता जैनधर्म में जातिभेद को स्थान नहीं इस तरह के अव्यावहारिक नारे लगाना या इन नारों पर लेखनी चलाना परिणाम में बहुत भयावह होगा। जाति बन्धन और संयम । . जबसे भारतमें जाति-बंधन शिथिल हुआहै तोसे भारतका नैतिक स्तर गिरता चना जारहाहै । नैतिक स्तर के संरक्षण और उत्थान में सबसे बड़ा कारण इंद्रिय संयमहै और इंद्रिय संयम का उपायहै-इन्द्रियोंके विषयों का परित्याग और इन्द्रिय विजयका उपाय है जातिबंधन | जातिबंधनही एक ऐसी वस्तु है जिससे स्पर्शन और रसन इंद्रियकी अनर्गल प्रवृत्ति नही होसकती । जाति बंधन के कारण यद्वा तद्वा दार-परिग्रह नहीं

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