Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 41
________________ भी आपस में थोडा मतभेद होजाने पर भी अलग २ संघ बन जाते हैं और अनेक बातों में उनके पधि विधान भी अलग २ से दीखते हैं । यदि वे सब मिलकर वीतराग बुद्धि से तत्वनिर्णय कर एक मार्ग पर चलें तो उनकी एकता क प्रभाव से सारा समाज सुखी और सच्चरित्र बन सकता है परंतु ऐसा इसलिए नहीं हो पाता कि परिणामों मे कषायों का सद्भाव है तो जब कपाय इतनी प्रबल है कि जो साधु पो तक का पीछा नहीं छोड़ती तो गृहस्थों का छोडदे, यह अशक्यानुस्ठान है । मुनियों के स्त्री परिग्रह तो नहीं होता परन्तु भोजन परिग्रह तो थोडा बहुत होता ही है उनमें जिस तरह यहदेखा जाता है कि अमक मुनि उसके चौके में चला गया तो अमुक मनि नहीं जाता और उस चौकेको अपवित्र मानता है । बस, यही मुनियों में जातिभेद है । जब मुनिजन ही अपने भोजन की शुद्धि के संशय में अन्य संदिग्ध नि का चौके में चला जाना तक वर्जित समझते हैं तो गृहस्थ मनुष्य म.त्र के साथ भोजन और स्त्री का परिग्रह कैसे करेगा ? उसके तो कपायाध्यवसाय मुनिजन से भी अनंत गुण होता है। अब यहां यह कोई प्रश्न करे कि कषायों का त्याग ही तो अपेक्षित है इसलिये कपाय त्याग के लिये सबके साथ खाना और विवाह करना उचित और नितान्त आवश्यक है, फिर ऐसे अत्युतम और परमावश्यक काम का विरोध क्यों ? इसके उत्तर में इतना ही निवेदन करना है कि जाति भेद मिटाने म कषाय त्याग कारण न होकर लोभकपाय की प्रबलता ही कारण है। किसी भी

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