Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 26
________________ शरीर में शिर, उदर, हाथ, पांव ये चार भेद हैं उसी प्रकार एक मनुष्य में भी हैं परन्तु शिर का काम पांव से तो नहीं किया जा सकता। यदि मस्तक को वजाय कोई किसी भले आदमी का पांच से अभिवादन करतो कितनी असभ्यता और अनौचित्य हो? जिस प्रकार ज्ञानमद के निषेध में ज्ञान त्याज्य नहीं होता तो फिर जातिमद के निषेध में जाति कैसे त्याज्य हो सकती है ? जै मे ज्ञान के तारतम्य से ज्ञान के भी अनेक भेद हैं जैसे ही अनेक बातों के कारण जातिभेद भी उसेवणीय नहीं होसकता। यदि जाति भेद ही नहीं था और मनुष्य मात्र को एक जानि माननेका ही सिद्वान्त है तो अंग्रेजों को भारतवर्ष के शासन से क्यों निकाला ? वे भी तो मनुष्य ही थे ? अंग्रेजों का अभारतीय होने के कारण ही तो हटाया गया। यदि यह कहर जाय कि भारतीय अभारतीय इस तरह दो जाति हैं तो मनुष्य जाति एक ही है यह सिद्धान्त नहीं ठहरता । भारत का विभाजन भी जाति भेद के आधार पर ही हुआ है । पाकिस्तान का निर्माण जाति पांति के आधार पर जाति पांति न मानने वालों ने ही किया है वास्तव मे सब मनुष्यों की एक जाति मानना ही अव्यवहार्य है । मनुष्य जाति एक है यह जो कथन है वह मनुष्यत्वेन सामान्यापेक्षया है।

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