Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 36
________________ - ३१ अन्य शास्त्र भी प्रमाण हों तो हमारे कोई हानि नहीं है । क्यों कि: स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ॥ भावार्थ:-जो अपनी जाति से विशुद्ध हो, उसको उसकी क्रिया में विनियोग के लिए जैनागम में बतलाई विधि श्रत्रश्यक है । अर्थात् अपनी जाति से शुध्द एक वर्ण के रत्नों को जिस प्रकार एकत्र करके माता आदि आभूषण बनाये जाते हैं उसी प्रकार अपनी जाति से विशुद्ध मानवों को जैनक्रिया विनियोग के लिये जैनागम विधि उपादेय है। क्यों कि - यद्रवभ्रांतिनिक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारेतु स्वतः सिद्ध े वृथाऽऽगमः ॥ भावार्थ:-संसार भ्रमण से छूटने में हेतु रूप बुद्धिका होना बड़ा दुर्लभ है अर्थात् यह संसार भ्रमण जिस निमित्त या कारण से छूट सके वही निमित्त संसार में सबसे बड़ा दुर्लभ और कठिन है। जाति पांति के स्वतः सिद्ध संसार व्यवहार में आगम प्रमाण को ढूंढ़ना या उसकी खोज करना वृथा है अर्थात् जातिभेद और जातिव्यवहार तो अनादि और स्वतः सिद्धहै । उसकी सिद्धि या

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