Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 31
________________ श्री प्रभाचंद्राचार्य की दृष्टि में जाति नामक कोई शब्द हो नहीं है तो "वृत्तिभेदाहितार्द्र दाचातुर्विध्यमिहाश्नुते" यह प्रमाणभी पटित नहीं होसकता। श्री जिनसेन स्वामी तथा अमितगति स्वामी स्वयं वृत्ति भेदसे जाति में चातुर्विध्य स्वीकार करते है । :भाचंद्राचार्य का अभिप्राय सामान्य पदार्थ की भिन्नसत्ताका खंडन करते समय यह है कि जिस प्रकार द्व्यमे गुण भिन्न नहीं होता अर्थात् गुण भावात्मक होनेमे द्रव्याश्रितही रहता है उसी प्रकार सामान्य षस्तु से अलग नहीं होता। वस्तु पर रहनेवाले धर्मका नामही सामान्य है जैसे कि घटसे घटत्व भिन्न नहीं होता वैसेहो ब्राधणसे ब्राह्मणत्व भिन्न नहीं होता इसलिए सामान्य का भिन्न पदार्थ मानना नितान्त भूल है। जातिवाचक सामान्य नामक अभिप्रेत पदार्थ की भिन्न सिद्धि के खंडन को चस्यानु योगसे संबध रखनेवाली जाति व्यवस्था और जातिभेद मर्यादाका खंडन समझा जाना बुद्धि दौबल्य और पश्यतोहरता मात्र है। शास्त्रकार के अभिप्राय को जानना परम आवश्यक पडित्य है। उस अभिप्राय को जानने के लिए प्रकरण को भी देखना होगा साथमें यहभी सोचना होगा कि यह प्रथ किस विषयका है । विचारणीय स्थलहे कि तर्कशास्त्रके प्रथमें आचार व्यवहारमूल जातिभेदके ग्बंडनसे क्या प्रयोजन ? परन्तु हथकंडेबाज लोग अपना दूषित अभिमत सिद्ध करने के लिए "कहीं की ईट कहों का रोदा और भानुमती ने कुनबा जोडा" कहावत चरितार्थ करते हैं।

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