Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 30
________________ २५ जानकार वेद न पडावे परन्तु कोई शूद्र भी देशान्तर में जाकर वेद पढ़ सकता है और फिर पढ़ा भी देता है फिर भी उसका ब्राह्मणत्व नहीं माना जाता।" परवादियों के अभिप्राय और अभिमत को निराकरण करने के लिए तार्किक विद्वानों का ध्येय उनको निग्रह स्थान की ओर जाना होता है और अनेक तर्कपूर्ण हेतुवाद से उन्हें पराजित किया जाता है। इस उक्त कथन का अभिप्राय यह कदापि नहीं हो सकता कि श्री प्रभाचन्द्राचार्य जाति और वर्णव्यवस्था को नहीं मान कर उसका खंडन कर गये हैं । यदि वेदाध्ययनादि से ब्राह्मपत्य को न माना जाय तो अमितगति श्राचार्य वर्य के उक्त कथन से ही विराध आता है क्योंकि उक्त श्राचार्यपाद स्वयं लिखते हैं कि "गुणैः संयते जाति गुणध्वसै विपद्यते " अर्थात् गुडोंसे जातिमें विशिष्टता तथा गुणध्वंससे हीनता आती हैं । जैनधर्म में चार श्रनुयोगों को चार वेद माना गया है। चार अनुयोग के ज्ञाता में विद्वत्व जाति कैसे न श्रावेगी ? विद्वान तथा सत्यशीलवत्व का नामही शब्दार्थता से ब्राह्मणत्व है उक्त 'प्रमेय कमल मार्तण्ड के उद्धरण से यहभी स्पष्ट विदित होता है कि मास के अतिरिक्त होने स्वयं कोकण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों काभी ' है क्योंकि उनका उल्लेख किया है।

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