Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 32
________________ २७ श्राचरण से ही जाति निश्चित करने में बाघ चार से ही जाति मानने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि एक मनुष्य के गुण तो ऐसे दीखते हैं जो क्षत्रिय जाति के हैं परन्तु उसका वह वर्णं नही है इसी प्रकार वर्ण तो क्षत्रिय है परन्तु काम उसका वैसा नहीं देखा जाता ऐसी व्यवस्था में उसका वर्ण या जाति कैसे निश्चित किया जाय ? और मनुष्य के असली आचरण की परीक्षा कैसे हो ? वाह्य रूप से किसी का ठीक पता नहीं चल सकता और धोखा हो जाता है। कई मनुष्य बाहर से तो बड़े कठोर और उम दीखते हैं परन्तु हृदय उन्का बड़ा सरल और भाद्र होता है । इसी प्रकार कई लोग उपर से बड़े मधुर भाषी होते हैं परन्तु भीतर से बड़े मायाधारी कोर क्त हृदय होते हैं। एक व्यक्ति को अनेक सज्जन सममते हैं तो अनेक दुर्जन भी । प्रायः देखा गया है कि जो जन्मभर भले आदमी से रहते हैं वे बड़ी दुष्टता भी करते हैं। इसी प्रकार जन्म भर पाप कमाने वाले को अन्त में धार्मिकभी देखा जाता है । अञ्जन चोर ने जन्मभर चोरी करके पीछे धर्म लाभ कर स्वर्ग प्राप्त किया । माघनंदि मुनि जन्म भर मुनि तक रह कर अन्त में पतित हो गये। इन सब बातों को देखते हुये यह बड़ा कठिन है कि एक पर्याय में किसी के आचरण को निश्चित कर जाति निश्चित की जा सके । इसीलिए जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था जन्म से ही बैठ सकती है, आचरण से नहीं। इसी प्रकार एक ही पर्याय में - -

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