Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 19
________________ नीचता में उचता की समानता के प्राश्रित और नीचता की समानता के आश्रित भी अनेक भेद होजाते हैं। कथन में सापेक्षता। जैन सिद्धांत में जितना भी कथन होता है, मब सापेक्ष होता है। किसी भी कथन में कुछ भी अपेक्षा होती है। अपेक्षा वाद को समझना हो पांडिल्य और विद्वत्ता है समस्त प्रमेय मर्मको समझने के लिए नय दृष्टि की बड़ी भारो आवश्यकता है । जो नयदृष्टिसंपन्न व्यक्ति होते हैं वे ही सम्यग्दृष्टि भी हो सकते हैं। नयदृष्टि विहीन व्यक्तियों को वस्तुस्वभावरूप धर्म को उपलब्धि नहीं होती। आचार्यों ने कहा भी है कि जे ण्यदिट्टिविहूण तारण रण उत्थू सहाब उवलद्धी । वत्थु सहाब विणा सम्माइट्ठी कहं होति ।। भावार्थ-जो मानव नय दृष्टि से विहीन होते है उनको वस्तुस्वभाव की उपलब्धि नहीं हो सकती और जो वस्तुस्वभावापलब्धि से विहीन हैं वे सम्य ष्टि कसे होसकते हैं ? जो लोग एकान्तबाद से अपेक्षावादको न समझ कर या समझते हुये भी दुर्भावना वश एक शब्द को पकड़ कर अपना मन मा अर्थ कर डालते हैं वे अपना और देश का बड़ा भारी अहित करते हैं और ऐसा करना महा पाप है। भगवान श्री कुन्द कुन्दायार्थ स्वयं दिगंबर ( नग्न ) थे और

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