Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed
Author(s): Indralal Shastri
Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh

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Page 14
________________ नकि केवल वृत्ति मात्र से । वृत्ति का संबंध भी पूर्व कर्मो से ही होता है। प्रवचन की प्रणाली । आचार्य जो उपदेश करते हैं उसकी भी प्रणाली और नय विवक्षा होती हैं । जो उस प्रणाली और विवक्षा को नहीं सममते और एक शब्द को पकड़कर दुराग्रह करते हैं वे पंडित नहीं किन्तु पठिन मूर्ख होते हैं और वे दुराग्रहवासना से जनता का बड़ा भारी हित करते है। एक जगह जिस वस्तु को आचार्य बुरी बतलाते हैं तो दूसरी जगह उसकी आवश्यकता भी बतलाते हैं तो इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि शास्त्रों में पूर्वापर विरुद्ध कथेन हैं । वास्तव में आवश्यकता के अनुसार ही उनका उपदेश होती हैं । जैसे पुत्र मित्र कलत्रादि के मोह में जो लोग फंस रहे हैं और अपना आत्महित नहीं करना चाहते उनके लिए पुत्रादि मोह की निंदा में न जाने कितने शास्त्र भर दिये हैं जैसे कि - जादो हर कलत्तं बढ़तो बढिमा हरई । त्थं हरइ समत्यो पुत्तसमो वैरिओ सात्थि । श्र ध. भावार्थ- पुत्र, उत्पन्न होते ही स्त्री सुख को नष्ट कर देता है. बड़ा होजाने पर पिता की वृद्धि को हर लेता हैं और समर्थ होने पर अर्थ (धन) छीन लेता हैं इसलिए पुत्र के समान संसार में कोई दूसरा शत्रु नहीं हैं। परन्तु भविष्य में गृहस्थाश्रम चलाने

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