Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed Author(s): Indralal Shastri Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh View full book textPage 8
________________ ३. - है | पंचेंद्रिय जाति के लाखों भेद हैं । जातियों के समस्त ८४ लाख भेद हैं । जाति और योनि ये दोनों शब्द प्रायः एकार्थक हैं । " जाति ' का लक्षण श्री राजवार्त्तिक ग्रंथ में भगवान् अकलंक स्वामी ने इस प्रकार कहा है- ' तत्र व्यभिचारि सादृश्यैकीकृतो sर्थात्मा जातिः " अर्थात् श्रव्यभिचारी सादृश्य से जो समान अर्थ स्वरूप है उसका नाम जाति है । वह सादृश्य ( समानता ) एक दूसरे से बिरुद्ध नहीं होता किन्तु बिना किसी व्यभिचार (अनेकांतिक) के एक तगत समानार्थ का द्योतक होता है। उस जाति का निमित्तभूत जो कर्म है वही जाती नामा कर्म होता है । मनुष्य जाति के भी इस विवेचन से यह बात फलितार्थ होती है कि मनुष्य जानि भी नाम कर्म की ६३ प्रकृतियों में भेद रूप न होकर एक उपभेद रूप है । जिस प्रकार पंचेंद्रिय जाति का मनुष्य जाति नामक कर्म उपभेद का भी उपभेद है उसी प्रकार अनेक भेद प्रभेद है। जब समस्त मनुष्य, सूक्ष्मता से विचार करने पर सर्वथा समान नहीं होते और कुछ कुछ भिन्न ही होते हैं तो उनको विभिन्नता देनेवाला कर्म भी भिन्न भिन्न ही होना चाहिये, अन्यथा भिन्नता क्यों ? श्रतः मनुष्य जाति मनुष्यत्वेन एक होकर भी fearभेद रूप है जैसे कि पंचेंद्रिय जाति, मनुष्य तियंच आदि अनेक रूप है। तिर्यग्जाति भी पंचेंद्रिय जाति का ही एक उपभेद है और हाथी, घोड़ा, भैंसा, बकरा, हरिण, कुत्ता मार्जार आदि अनेक भेदों में विभक्त है। जैसे इनमें अनेक भेदPage Navigation
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