Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed Author(s): Indralal Shastri Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh View full book textPage 6
________________ ।। श्रीः ।। जैन धर्म और जाति-भेद सज्जातित्वादिसप्तश्रीपरमस्थानमंडितान् । जिनान्नौमि त्रिशुध्याहं सर्वसौख्यविधायकान । जाति--शब्द । यह सिद्धान्त सुनिश्चित है कि प्रत्येक वाच्यार्थ उसके बाचक शब्द में ही निहित होता है। वाच्य, वाचक से भिन्न रहकर कार्यकारी नहीं हो सकता । जाति शब्द संस्कृत भाषा का है । जोकि ‘जनी प्रादुर्भावे ' धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर बनता है । प्रादुर्भाव का अर्थ उत्पत्ति, जन्म अथवा पैदायश है। वास्तव में जन्म स्थान का नाम जाति है अर्थात् जन्म प्राधेय और जाति प्राधार है। जाति और जन्म में आधार आधेय भाव वैसा ही है जैसा कि हाथ और हाथ में होने वाली रेखाओं में है । इस आधार का काल तभी से है जबसे कि श्राधेय का । जैसे कि हाथ और रेखा का आधार आधेय भाव है । जब से हाथ है तभी से रेखा है तो भी व्यवहार में यही बोला जाता है कि 'हाथ में रेखा' वैसे ही 'जाति में जन्म ' ऐसा तात्पर्यार्थ है।Page Navigation
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