Book Title: Jain Dharm aur Jatibhed Author(s): Indralal Shastri Publisher: Mishrilal Jain Nyayatirth Sujangadh View full book textPage 7
________________ इससे यह सिद्ध होता है कि जाति शब्द का संबंध ही जन्म से है इसलिए जाति, जन्म से ही होती है । जाति और जन्म का तादात्म्य संबंध है। जाति, जन्म बिना नहीं होती और जन्म, जाति बिना नहीं होता इसलिए कहना पड़ेगा कि जो जाति को जन्म से नहीं मानते वे शब्द का अर्थ तक और उसकी व्युत्पत्ति तक भी नहीं जानते । 'जाति' शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि ' जायते यस्यां सा जातिः ' अर्थात् जिसमें उत्पत्ति ( जन्म ) हो उसका नाम जाति है । इस व्युत्पत्ति और शब्द से जाति का जन्म के साथ कितना संबंध है, यह सर्व साधारण भी अच्छी तरह समझ सकते हैं । जाति और जैन सिद्धान्त । जैन सिद्धान्त में कर्म के आठ मैद माने गये हैं । ज्ञाना वरण, दर्शनावरण, अतराय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र और वेदनीय | इन सब कर्मों को प्रकृतियां भी कहते हैं । इनके उत्तर भेद १४८ हैं, जिनमें नाम कर्म के ६३ भेद हैं। गति, जाति, शरीर, गोपांग आदि । गति के ४ भेद हैं, जाति के पांच भेद, शरीर के पांच आदि । ये चार, पांच, पांच आदि सब मिलकर ही ६३ भेद होते हैं । जाति के पांच भेद इस प्रकार हैं- एकेंद्रिय जाति, द्विन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिंद्रिय जाति और पचेंद्रिय जाति । नाम कर्म के ६३ भेदों में मनुष्य जाति नामका कोई भेद नहीं है। पंचेंद्रिय जाति का ही मनुष्य जाति नामक एक उपभेदPage Navigation
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