Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ ( ४ ) पाप प्रकृति का बन्ध हो ही नहीं सकता । भगवान महावीर ने तो साधु और श्रावक का श्राचरण रूप धर्म दो प्रकार का स्पष्टतया बतलाया है, दोनों के कल्प मर्यादाएँ तथा प्रवृत्तिएँ भी पृथकू २ बतलाई है । अनेक कार्य ऐसे हैं जिन्हें; साधु तो कर सकता है, जिनका न करना साधु के लिए पाप माना जाता है, परन्तु गृहस्थ नहीं करता है और गृहस्य का न करना, पाप नहीं माना जाता । इसी प्रकार बहुत से कार्य ऐसे हैं, जिन्हें गृहस्थ श्रावक तो करता है परन्तु साधु नहीं कर सकता और उन कामों को नहीं करने पर भी साधु को पाप नहीं लगता । उदाहरण के लिये -- साधु यदि भोजन सामग्री रात- बासी रखता है तो उसको पाप लगता है, इतना ही नहीं व्रत भंग भी होता है और संयम की भी विराधना होती है, परन्तु गृहस्थ रखता है फिर भी उसे दोष नहीं लगता । इसी प्रकार यदि गृहस्थ श्रावक भोजन के समय यदि अतिथि संविभाग की भावना नहीं करता है तो उसे व्रतभंग रूप पाप लगता है, क्योंकि श्रातिथ्य सत्कार करना गृहस्थ जीवन का एक साधारण किन्तु मुख्य धर्म है, परन्तु साधु लोग अतिथि संविभाग नहीं कर सकते । कारण, साधु होते समय, सांसारिक भोगोपभोग की सर्व वस्तुओं का उन्होंने त्याग कर दिया है । जो अन्न वस्त्रादि गृहस्थ के यहाँ से वे लाते हैं वे अपने खुद के या अपने संभोगी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 196