Book Title: Jain Darshan me Shwetambar Terah Panth
Author(s): Shankarprasad Dikshit
Publisher: Balchand Shrishrimal

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ( २ ) इस अनादि अनन्त संसार-सागर में परिभ्रमण करते हुए भव्य प्राणियों के कल्याणार्थ अनन्त भावदया से परिपूर्ण है श्रात्मा जिनका, ऐसे भगवान महावीर ने मोक्ष-मार्ग का विधान करते हुए सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र की आराधना करने का उपदेश किया है, परन्तु भगवान महावीर सर्वज्ञ होने से संसारी जीवों में क्षयोपशम की विचित्रता को जानकर ज्ञान-दर्शन की आराधना में, साधु और श्रावक का भेद न करते हुए तथा चारित्र आराधना में, साधु और श्रावकों का भेद बतला कर पात्रानुसार, साधु व श्रावक के आचरण का पृथक् पृथक् विधान किया है। जैसे_ "धम्मे दुविहे पनत्ते तंजहा-आगार धम्मे चेव-अणगार धम्मे चेव” (श्री स्थानांग सूत्र-द्वितीय स्थान) ___ अर्थ-धर्म दो प्रकार का प्ररूपा है-श्रागार यानि गृहस्थ के आचरण करने योग्य धर्म और अणगार यानि ग्रह-त्यागी साधु के आचरण करने योग्य धर्म । दोनों धर्मों की विशिष्ट व्याख्या करते हुए, भागार धर्म-द्वादश प्रकार का और लणगार धर्म-पांच प्रकार का बतलाया है। दोनों के कल्प, स्थिति और मर्यादा जुदी २ कायम की गई हैं, उन२ मर्यादाओं में रहकर क्रिया अनुष्ठान का प्रासेवन करे तो वे दोनों ही अपने २ धर्म के आराधक होते हैं; किन्तु मर्यादा का उलंघन करके बासेवना करे, क्रिया अनुष्ठान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 196