Book Title: Jain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Author(s): Shweta Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 18
________________ xvii (७) जैन दार्शनिक कार्य-कारण में भेदाभेदता स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार घट-कार्य मृत्तिका कारण से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी, उसी प्रकार प्रत्येक कार्य अपने कारण से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी। सांख्यदर्शन कारण एवं कार्य में एकान्त अभेद मानता है तथा वैशेषिक दर्शन इनमें एकान्त भेद स्वीकार करता है। इन दोनों की मान्यताओं का जैनदार्शनिकों ने निरसन किया है। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि कार्य अपने कारण से अभिधान, संख्या, लक्षण आदि से भिन्न भी होता है तथा सत्त्व, ज्ञेयत्व आदि अपेक्षा से वह अभिन्न भी होता है।' (८) जैन दर्शन में कारण-कार्य को सदसदात्मक स्वीकार किया गया है। इसमें कारण भी सदसदात्मक होता है तथा कार्य भी सदसदात्मक होता है। कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व असत् होता है तथा उत्पत्ति के पश्चात् सत् होता है, जबकि कारण कार्य की उत्पत्ति के पूर्व सत् होता है तथा उत्पत्ति के पश्चात् वह असत् हो जाता है। इस दृष्टि से कार्य एवं कारण दोनों सदसदात्मक होते हैं। (९) उपादान एवं निमित्त भेदों का प्रतिपादन भी जैनदर्शन में हुआ है। जिस कारण में कार्य उत्पन्न होता है अथवा जो कार्य का प्रमुख कारण होता है उसे उपादान कहते हैं तथा सहकारी कारण को निमित्त कारण कहा जाता है। वेदान्तदर्शन में उपादान एवं निमित्त शब्दों से ही कार्य-कारण-व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है। ये शब्द जैनदर्शन में विद्यानन्द की अष्टसहस्री, बृहद्र्व्यसंग्रहटीका, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने जैनतत्त्वमीमांसा में उपादान-निमित्त की विस्तृत चर्चा की है। (१०) कार्य उत्पन्न हो जाने के अनन्तर अपनी अर्थक्रिया में वह कारण सापेक्ष नहीं रहता है, इसका प्रतिपादन प्रभाचन्द्र (९८०-१०६५ई.) ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में किया है। १ (१) मल्लधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य वृत्ति, गाथा २१०३ एवं २९११ (२) स्याद्वादरत्नाकर, भारतीय बुक कार्पोरेशन दिल्ली, पृ० ८०३ २ जैनदर्शन में सांख्य के सत्कार्यवाद, न्याय-वैशेषिक के असत्कार्यवाद, वेदान्त के सत्कारणवाद एवं बौद्धों के असत्कारण का निरसन कर सदसत्कार्यवाद एवं सदसत्कारणवाद की सिद्धि की गई है। ३ अष्टसहस्री, पृ० २१०, बृहद्र्व्यसंग्रहटीका, गाथा २१, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २१७ ४ प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० ४१६-४१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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