Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Anushilan
Author(s): Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 20
________________ सभी सम्प्रदायों में एक रूपता है, किन्तु दिगम्बर परम्पार में बारह उपांगों की न तो कोई मान्यता रही और न वे वर्तमान में इन ग्रन्थों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। यद्यपि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीपसागरप्रज्ञप्ति आदि नामों से उनके यहाँ कुछ ग्रन्थ अवश्य पाये जाते हैं। साथ ही सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी उनके द्वारा दृष्टिवाद के परिकर्म के अन्तर्गत स्वीकार किया गया था। • चार मूलसूत्र ___सामान्यतया उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक और पिण्डनियुक्ति ये चार मूलसूत्र माने गये हैं। फिर भी मूलसूत्रों की संख्या और नामों के सन्दर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है । जहाँ तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एक मत से मूलसूत्र माना है । समयसुन्दर भावप्रभसूरि तथा पाश्चात्य विद्वानों में प्रो. बेबर प्रो. वूल्हर प्रो. सारपेन्टियर प्रो. विन्टर्नित्ज, प्रो. शूब्रिग आदि ने एक स्वर से आवश्यक को मूलसूत्र माना है, किन्तु स्थानकवासी एवं तेरापन्थी सम्प्रदाय आवश्यक को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। ये दोनों सम्प्रदाय आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति के स्थान पर नन्दी और अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है । इस प्रकार मूलसूत्रों के वर्गीकरण और उनके नामों में एक रूपता का अभाव है । दिगम्बर परम्परा में इन मूलसूत्रों में से दशवैकालिक,उत्तराध्ययन और आवश्यक मान्य रहे हैं । तत्त्वार्थ की दिगम्बर टीकाओं में, धवला में तथा अगपण्णति में इनका उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि अंगपण्णत्ति में नन्दीसूत्र की भाँति ही आवश्यक के छह विभाग किये गये हैं । यापनीय परम्परा में भी न केवल आवश्यक, उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक मान्य रहें हैं, अपितु यापनीय आचार्य अपराजित (नवीं शती) ने तो दशवैकालिक की टीका भी लिखी थी। • छेदसूत्र - छेदंसूत्रों के अन्तर्गत वर्तमान में १. आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) २. कप्प (कल्प) ३. ववहार (व्यवहार), ४. निसीह (निशीथ) ५. महानिसीह (महानिशीथ) और ६. जीयकप्प (जीतकल्पाये छह ग्रन्थ माने जाते हैं । इनमें से महानिशीथ औरजीतकल्प को श्वेताम्बरों की तेरापन्थी औरस्थानकवासी सम्प्रदायें मान्य नहीं करती हैं । वे दोनों मात्र चार ही छेदसूत्र मानते हैं । जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय उपर्युक्त ६ छेदसूत्रों को मानता है । जहाँ तक दिगम्बर और यापनीय परम्परा का प्रश्न है उनमें अंगबाह्य ग्रन्थों में कल्प, व्यवहार और निशीथ का उल्लेख मिलता है । यापनीय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में न केवल इनका उल्लेख मिलता है, अपितु इनके अवतरण भी दिए गए हैं। आश्चर्य यह है कि वर्तमान में दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मूलतः यापनीय परम्परा के प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ “छेदपिण्डशास्त्र” में कल्प और व्यवहार के प्रमाण्य के साथ-साथ जीतकल्प का भी प्रमाण्य स्वीकार किया गया है । इस प्रकार दिगम्बर एवं यापनीय परम्पराओं में कल्प,व्यवहार निशीथ औरजीतकल्प की मान्यता रही है, यद्यपि वर्तमान में दिगम्बर आचार्य इन्हें मान्य नहीं करते हैं।

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