Book Title: Dwait Samrajya
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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पस्थादिदभिन्नमभिन्नवास्तिरूपकम्॥५८॥ अभिन्नंचेदापणस्थेवत्यत्वमुररीकृतम् // सा० चायंरजतारोपःकित्वत्रत्यत्वकस्यसः॥५९॥नतेनसंप्रयोगोऽस्तिनारोपस्तप्रयुज्यते॥ भिन्नचेत्नमेवेदमिदमर्थमृतेनहि // 60 // तस्मानतस्यभेदोऽस्तीदमर्थेशुक्तिखण्डके॥ धर्मारोपेऽपिधर्मोऽयंवास्तवाद्भिद्यतेनवा // 6 // द्वितीयेवास्तवंतत्स्यात्प्रथमेऽभिनवंभवेत् ॥समागतानिर्वचनीयख्यातिर्ममसंमता॥६२॥ आरोपितत्वाभानेनभ्रांतस्या||भेदविभ्रमः // तस्याभिलापशब्दस्यनधर्मेलक्षणाभवेत् // 63 // नधान्तेर्गौरवंदो॥षःस्वयंदोषोयतोभ्रमः // धर्मारोपेऽपिनोभेदस्तद्ग्रहग्राह्यतायतः ॥६४॥संसर्गारो पपक्षोऽपित्तोत्तरइतिस्मर॥तस्मानब्रह्मजगतो”दोवक्तुंहियुज्यते॥६५॥ ब्रह्माभेदानजीवस्यभेदोऽस्तिजगतासह // सुपर्णऋतपानाख्यश्रुतिभ्यांभेदउच्यते॥६६॥ इतिचेदहिकस्त्वंभोजीवोब्रह्माथवेश्वरः // जीघश्चेदीश्वरागिनोब्रह्मणोवाथमेवद // 4 // // 67 // भिन्नश्चेदीश्वराब्रूहिकोभेदहेतुरंजसा॥ सर्वज्ञत्वादयोधर्माऐश्वरामयिनेतिचेव For Private and Personal Use Only

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