Book Title: Dwait Samrajya
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अ० कार्यमेवस्वशब्दार्थउक्तदोषःस्थितस्ततः // तस्माद्भिन्नमभिन्नवाकार्यवक्तुंहिदुःशकम् सा० | // 17 // तस्मान्मिथ्यैवविश्वंस्यात्कस्यवासाधकंभवेत् // अकार्यचेत्सर्वयत्नवैय्य॥१२॥ •पत्तिरापतेत् // 18 // विश्वनिष्ठञ्चमिथ्यात्वंसत्यंमिथ्याथवावद // आद्यदैतं द्वितीयेतुजगत्सत्यत्वमापतेत् ॥१९॥इतिचेच्छृण्वनिर्वाच्यस्थितोधर्मोऽपितादृशः॥ वंध्यापुत्रस्थिताधर्मास्तादृशाएवनान्यथा // यावन्मिथ्यावस्तुभाविमिथ्यात्वंदृश्यवस्तुनः // 220 // मिथ्यात्वस्यापिमिथ्यात्वेसत्यत्वंनहिसिध्यति // तथासत्यविरोधित्वंतथातुच्छविरोधिता // 21 // सदसद्भिन्नभिन्नत्वेसदसपदूतास्थिरा // इदमेवत्वनिर्वाच्यमुच्यतेब्रह्मवादिभिः॥२२॥मिथ्यावस्तुनिवृत्त्यैवनिवृत्तंयद्भवेत्ततः॥न?तमप्रसिद्धत्वादन्योन्यंशूक्तिरौप्यवत् ॥२३॥किमत्रबहुनोक्तेनग्राह्यसंभावनानहि॥ यत्किंचिदृह्यतेतत्तुज्ञानयोगेनगृह्यते // 24 // ज्ञानेज्ञेयस्यसंबंधोविषयित्वनचापरः॥ // 12 // तञ्चवरूपंज्ञानस्यसर्वतैर्थिकसंमतम् // 25 // भिन्नत्वेकल्पनीयंस्यात्सम्बन्धान्त For Private and Personal Use Only

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