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प्रस्तावना
६. षष्ठ अध्याय
श्रावककी दिनचर्या-चतुर्थ और पंचम अध्यायमें बारह व्रतोंका वर्णन करनेके पश्चात् छठे अध्यायमें श्रावककी दिनचर्या बतलायी है। श्रावकाचारोंकी दृष्टिसे यह एक बिलकुल नवीन वस्तु है । किसी भी श्रावकाचारमें यह नहीं मिलती। किन्तु यह आशाधरजीकी अपनी उपज नहीं है। हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रसे ही उन्हें इसकी प्रेरणा मिली है । और उन्होंने उसे अपनी दृष्टिसे ग्रथित किया है।
यथार्थ में मुमुक्ष श्रावककी अपनी एक ऐसी दिनचर्या होना आवश्यक है जिसमें वह अपना समय धर्मध्यानपूर्वक बिता सके तथा अपना गृहस्थाश्रम भी चला सके ।
_ व्रती श्रावकको ब्राह्म मुहूर्तमें उठते ही नमस्कार मन्त्रका जाप करनेके पश्चात् 'मैं कौन हूँ, मेरा क्या धर्म है, मेरे व्रताचरणकी क्या स्थिति है' इत्यादि विचार करना चाहिए। ऐसा करनेसे शुभोपयोगपूर्वक अपने जीवनका ढाँचा अपनी दृष्टि में रहता है। और अपनी कमियाँ सामने आती हैं तथा उनको सुधारनेका अवसर मिलता है । उसके पश्चात् नित्यकृत्यसे निवृत्त होकर देवदर्शन-पूजन आदि करना चाहिए।
आशाधरजीने मन्दिर जाते समयसे लेकर मन्दिरसे निकलकर घर जाने तककी जो विधि-विचार वर्णित किये हैं वे सब बहुत ही उपयोगी हैं ।
प्रातःकालका समय है । सूर्योदय हो रहा है। उसे देखकर मन्दिरकी ओर जाता हुआ श्रावक सूर्यको देखकर अर्हन्तदेवका स्मरण करता है कि उन्होंने भी जगत्का अज्ञानान्धकार दूर किया था। पैर धोकर वह मन्दिरमें प्रवेश करता है और स्तुति पढ़ते हुए नमस्कारपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देता है। वह बिचारता है-यह मन्दिर समवसरण है, यह जिनबिम्ब साक्षात् अर्हन्तदेव हैं। मन्दिरमें उपस्थित स्त्री-पुरुष समवसरणमें स्थित भव्यप्राणी है । ऐसा विचारते हुए वह हृदयसे सबकी अनुमोदना करता है । जो जिनवाणीका पाठ करते हैं, व्याख्यान करते हैं तन मनसे उनकी सराहना करता है। उनका उत्साह बढ़ाता है और अपने घर पहुँचकर व्यवसायमें लग जाता है । पीछे मध्याह्नकी वन्दना करके भोजन करता है।
भोजनसे पहले अतिथिकी प्रतीक्षा करता है। अपने परिवारके सब लोगोंको भोजन कराता है, दयाभावसे जो अपने आश्रित नहीं हैं उनको भी भोजन कराता है तब स्वयं भोजन करता है।
रात्रिमें जब नींद खुल जाती है तो वैराग्य भावनाका ही चिन्तन करता है।
सच्चे मुमुक्षु श्रावककी दिनचर्या ऐसी ही पवित्र होती है। ऐसा पवित्र श्रावक जीवन बिताने के पश्चात् जो मुनि बनते हैं वे मोक्षके पात्र होते हैं । अस्तु ।
७. सप्तम अध्याय
सातवें अध्यायमें शेष दस प्रतिमाओंका विवेचन है । अन्तिम उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाका वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें वणित ग्यारहवीं प्रतिमाके स्वरूपके प्रकाशमें उसे देखनेपर लगता है कि एक हजार वर्षके अन्तरालमें कितना परिवर्तन और परिवर्धन हुआ है। खण्डवस्त्रधारी भिक्षाभोजी उद्दिष्ट श्रावकके कितने भेद-प्रभेद हो गये हैं ? आशाधरजीने उपलब्ध सभी सामग्रीको संकलित कर दिया है।
८. अष्टम अध्याय
अन्तिम आठवें अध्यायमें श्रावकके तीसरे भेद साधकका वर्णन विस्तारसे है, जो जीवनका अन्त आनेपर प्रीतिपूर्वक शरीर और आहार आदिका ममत्व छोड़कर सल्लेखनापूर्वक प्राणत्याग करता है वह साधक श्रावक कहलाता है ।
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