Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa
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(२१) जो वह उस रास्तेमें चलता रहा तो अवश्य कूएंमें पड़ेगा ऐसा देखकर हम खामोश बैठे रहे तो बड़ाभारी गुनाह है । जैन महात्माओंका भी कथन है कि
“ धर्मध्वंसे कृपालोपे, स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे ।
अपृष्टेनाऽपि शक्तेन, वक्तव्यं तनिषेधकम् ।। भावार्थ-धर्मके नाशमें और कृपा (दया) के नाशमें, अपने सिद्धान्नके अर्थकी विरु द्धतामें बिना पूछे भी समर्थपुरुषने उनका प्रतिरोध करनेके लिए तय्यार हो जाना चाहिए। इस नियमानुसार अपना कर्त्तव्य समझकर हमभी वेचरदासके उस भाषणका (जो उसने 'ता. २१ जनवरी १९१२ को मांगरोल जैनसभा . बम्बईमें दिया है, और जो ता. २० वीं अप्रेल १९१९ के जैनपत्रमें प्रकाशित हुआ है, जिसको बेचरदासने अपने अभिप्रायसे अबाधित स्वीकार किया है ) अनुक्रमसे प्रतिवाद (खण्डन) करते हैं। पाठक महाशय तटस्थविचारसे ध्यानपूर्वक पढ़कर अपनी श्रद्धाको स्थिर करेंगे ऐसी उम्मीद कीनाती है ।
वेचरदास- देवद्रव्य शब्दन काई असंवद्ध ने विचित्र छे. जैनो जेने देव तरीके स्वीकारे छे ते राग, द्वेष, धन, स्त्री वगेरेथी मुक्त दरेक कषायथी रहित होय छे, हवे राग द्वेषविनाना प्रभुनु द्रव्यं शी रीते संभवी शके ?"
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