Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa
View full book text
________________
( ४९)
व्याख्या-एतादृशेन द्रव्येण गाथायां सप्तमी तृतीयाथै यत् आत्मार्थ तत् श्रमणानां किन्नु गृहीतुं कल्पते ?
मुरिराह-यश्चैत्यद्रव्येण यच्च वा सुविहितानां मूल्येनाऽऽत्माऽर्थ कृतं तदीयमानं न कल्पते । किं कारणमिति चेदुच्यते-स्तेनानीतस्य प्रतीच्छा प्रतिग्रहणं लोकेऽपि गर्हिता किमङ्ग पुनरुत्तरे तत्र सुतरां गर्हिता यतश्चैत्ययतिप्रत्यनीके चैत्ययतिप्रत्यनीकम्य हस्तायो गृहणीयात् सोऽपि हु निश्चितं तथैव चैत्यप्रत्यनीका एव ।। इत्यादि ।
भावार्थ-शिष्य प्रश्न करता है कि-चौरोंका समुदाय चैत्यद्रव्यको हरणकरके लेगया उनमें से कोई मनुष्य अपना भागलेकर उससे लड्ड वगैरा बनाकर साधुओंको देवे और किसी चौरने उपधिसहित साधुको बेचकरके उत्पन्न किए धनमेंसे रसोई बनाईहै उसमें से प्रासुक आहार साधुको दे तो क्या वह आहार साधुको कल्पे ?
आचार्य महाराज जवाब देते हैं कि वह आहार साधुको न कसे क्योंकि-यतियोंके शत्रु और चैत्यके शत्रुके पाससे आहार लेनेवाला भी यति और चैत्यका प्रत्यनीक (वैरी ) ही कहा जाताहै
और ऐसे आहारके ग्रहणकरनेसे लोकोंमें भी निंद्य (निन्दाका पात्र) बनताहै देखिये ! ऐसे ऐसे अनेक सूत्रके पाठ होने परभी धिठाई करके बेचरदासने कह दिया कि-'देवदव्य जैन आगममें नहीं है' यह कितनी बड़ी भारी भूल की है आगमशास्त्रके ज्ञान वगैर बेचरदासने सभामें खड़े होकर यह कथन करते वक्त शायद ऐसा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org