Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa
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(६६)
'डहरगाममयम्मि, न करेंति जा न निणियं होति ।
पुर गामे व महंते, वाडव साहिं परिहरन्ति ' ॥ व्याख्या--डहरके-क्षुल्लकग्रामे कोऽपि मृतस्तस्मिन्मृते तावत् स्वाध्यायो न क्रियते यावत्तत् कलेवरं न निष्कासितं भवति । पुरे पत्तने महति वा ग्रामे वाटके साही वा यदि मृतः तदा तं पाटकं साहिं वा परिहन्ति, किमुक्तं भवति वाटकात् साहितोऽन्यत्र मृते नाऽस्वाध्यायः ' इत्यादि ।
भावार्थ-छोटे गाममें कोई मरण हो तो जब तक उस शब ( मुर्दे) को न निकाले तबतक साधुलोग स्वाध्याय न करें । और बड़े शहरमें या बड़े गाममें रहते हों तो जिस मोहलेमें या गली में वसते हों उसमें अगर मृतकका कलेवर हो तो स्वाध्याय न करें। और उससे दूर हों तो करें । बतलाइए अगर साधु जंगल में ही रहते हों तो इस विषयके जिकरकी क्या जरूरत थी. क्या जंगलोंमेंभी कूचा, मोहला होता है ? कदापि नहीं । इससे भी बेचरदासका यह कथन कि — जंगलोमांज रही' असत्य ठहरता है । और इस वाक्यके असत्य हो जानेसे सारे भाषणका सारांश उड़ जाता है । क्योंकि भाषाका मतलब देवद्रव्यको उड़ा देनेका है, और देवद्रव्यको उड़ानेके लिये ही यह दलील पेश की है कि 'साधु भों के गाममें रहने से यह प्रथा शुरू हुई '-अब साधु लोगोंका तो आगमप्रमाणसे हमेशा गाममें रहना सिद्ध हुवा । वस इससे देवद्रव्यभी हमेशासे
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