Book Title: Devdravyadisiddhi Aparnam Bechar Hitshiksha
Author(s): Sarupchand Dolatram Shah, Ambalal Jethalal Shah
Publisher: Sha Sarupchand Dolatram Mansa

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ ( ३२ ) अनेक ग्रन्थके कर्त्ता और आदितपागच्छविरुदधारक श्री जगञ्चन्द्रसूरिके शिष्य देवेन्द्रसूरिमहाराजके ज्ञानके आगे मेरा ज्ञान क्या है ? उन महापुरुषोंके सामने मैं ऐसा हूं जैसा सूर्यके सामने खद्योत, इसलिये ऐसे महात्माके वचनोंसे विरुद्ध क्यों भाषण देता हूं ? क्या मेरे भाषणको जैनसमाज मानलेगा ? (मानना तो क्या बल्कि सहस्रशः धिक्कारवाद देंगें ) अगर बेचरदास भाषण से पहिले यह विचार करता तो ऐसा अनुचितकार्य कदापि नहीं करता, जो एक घातकके पातक सभी शास्त्रदृष्टिसें अधिक नीच माना गया है । तटस्थ - अगर बचेरदासको कर्मग्रंथ के इस पाठका भान न रहा हो तो अब इसपाठको देखके सुधर जाय तो क्या आश्चर्य है । इस लिये और भी पाठ लिखें जिससे वेचरदासकी आत्माको भी लाभ पहुंचे । समालोचक- तुम्हारा यह मानना है कि बेचरदास सुधर जाए परन्तु यह मानना मेरे खयाल से वन्ध्यासे पुत्र प्राप्ति जैसा हैं, क्योंकि बेचरदासने यह भूल अज्ञानावस्थामें नहीं की है किन्तु पूर्वजन्मके धोरपापकर्मो के उदयसे अपने किसी गुप्तइरादे को सफल करनेके लिये जानकर झूठामार्ग पकड़ा है इसलिये ढूंढियोंसेभी अधम बनकर कहदिया कि - ' मैं ग्यारह अंगको मानता हूं और उसमे भी मिश्रण है " - इस का मतलब यह है कि ग्यारह अंगमसभी जिसमें देवद्रव्यकी सिद्धि होगी उसमें 'मिश्रण है' ऐसा कहकर मुक्त हो जाउंगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176