Book Title: Charcharyadi Granth Sangrah Author(s): Jinduttsuri, Jinharisagarsuri Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar View full book textPage 9
________________ चचरी सर्वविद्या प्रधान तर्कविद्या सम्बन्धिनी उनकी स्तुति विरोधालंकारसे बताते हैं जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तणइ, जाणइ जिव नियनामु न तिण जिवा कुवि घणइ । परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुह ? ॥ २ ॥ अर्थ-जो अप्रमाण अर्थात् सर्वथा प्रमाण रहित होते हुए भी छह दर्शनों के प्रत्यक्षादि बहुत प्रमाणोंको अपने नामके जैसे जानते हैं। यहां विरोध रूप यह दीखता है कि जो जो स्वयं अप्रमाण है वह दूसरों के प्रमाणको किस तरह जान सकता है ? विरोध परिहार इस प्रकार है, कि-जो मान रहित होते हुए, अथवा अपरिमित गुणोंको धारण करनेसे अप्रमाण होते हुए षट् दर्शनोंके बहुत प्रमाणोंको निज नामके समान ऐसे जानते हैं, जैसे दूसरा कोई विद्वान नहीं जानता। जो परवादी रूप मदोन्मत्त हाथियोंको विदारण करनेमें पंचमुख-सिंहके समान है उन गुरुदेवके गुणवर्णनमें एक मुखवाला कौन समर्थ हो सकता ? अपितु कोई नहीं। जो वायरणु वियाणइ सुहलक्खानलउ, सद्दु असदु वियारइ सुवियक्खणतिलउ । सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ, गुरु लहु लहि पइठावइ नरहिउ विजयमउ ॥ : अर्थ-जो सामुद्रिकोके शुभ लक्षणोंके स्थान भूत गुरु, व्याकरण शास्त्रको भली भांति जानते हैं। अच्छे विद्वानोंमें तिलक जैसे जो आचार्य महाराज वैयाकरण होनेसेशब्दोंको और अपशब्दों को भी अच्छी तरहसे शोचते हैं । जो अच्छे यति-विराम स्थानवाले नगण रगण सहित विशिष्ट जगण यगण आदि गणोंवाले छन्दोंके शोभन अभिप्रायसे होते हुए व्याख्यानमें गुरु लघु वर्गों को यथा स्थान प्रतिष्ठित करते हैं, अर्थात् श्रीजिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज न्याय व्याकरण और छन्द : शास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान् थे। [इस श्लोक के तीसरे चौथे चरणोंका अर्थ ऐसे भी हो सकता है कि ]-सुयति मान्य जनहितकारी और और विजयी आचार्य महाराज स्वतन्त्रतापूर्वक छन्दोमय व्याख्यान फरमाते हैं, एवं गुणोंमें बड़े-छोटे मुनियोंको पाकर उनको यथा स्थान आचार्य उपाध्यायादि पदोंपर प्रतिष्ठित करते हैं । अर्थात् आप मधुर व्याख्यान करते हैं एवं सामर्थ्य संपन्न सूरि सम्राट् थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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