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[२] जाते हैं. और अपनी या अपने पक्षकारोंकी बडाई करने लग ते हैं। मगर शास्त्रों में तो कहा है. कि-आत्मप्रदेशगत मिथ्यात्वसभी प्ररूपणागत मिथ्यात्व अधिक दोषवाला होनेसे अनेक भवभ्रमण करानेवाला होता है।
और अनादिकालसे ११ अंगादिकको देखकर अनंतजीव संसार परिभ्रमणके दुःखसे मुक्त होगये. और अनंतजीव संसार परिभ्रमणके दुःखको बढानेवालेभी होगये । इसका आशय यही है, कि. अतीव गहनाशयवाले, अपेक्षा गर्भित शास्त्रकारोंके अभिप्रायको समझकर वर्ताव करनेवाले मुक्तिगामी होते हैं । और शास्त्रकारोके अभिप्राय विरुद्ध होकर शब्दमात्रके आग्रहमें पड़नेवाले संसारगामी होते हैं.। मगर जो आत्मार्थी होते हैं वो तो शब्द मात्रके विवादको छोडकर तात्पर्यार्थ तरफ दृष्टि करते हैं, और जो आग्रही होते हैं, वो तात्पर्यार्थको छोडकर शब्दमात्रके विवादको विशेष ब. ढाते हैं। इसी ही कारणसे रागद्वेषादि भाव शत्रुओंको हटानेवाला वीतराग सर्वश भगवान्का कथन किया हुआ अविसंवादी शांति. प्रिय जैनशासनमें अभी विसंवादरूपी विरोध भावको स्थान मिल. गया है। ___और पहिले तो तीर्थकर महाराजोंके जितने गणधर होतेथे उतने ही गच्छ [ साधु समुदायको ओलखान ] होतेथे और पीछे. भी प्रभावकाचार्योंकी बहुत समुदाय होनेसे कुल-गण-शाखा वगैरह होतेथे, मगर सबकी प्ररूपणा और क्रिया एक समान होनेसे संपशां. तिसे मिलते हुए आत्मकल्याण करतेथे, उस समय विरोधी प्ररूपणा के अभावसे किसीकोभी कोई तरहकी शंकाका कारण या अपने गच्छके आग्रहका कारण नहींथा. मगर श्रीवीरप्रभुके निर्वाणबाद पडताकाल होनेसे कितनेक शिथिलाचारी चैत्यवासी होगये, उन्हींसे गच्छोंका आग्रह और भिन्नभिन्न प्ररूपणा विशेष होने लगी. तबसे ही शास्त्रोक्त जिनपूजा विधिमे कुछ अविधिभी होगई, और जैन पंचांगके विच्छेद होनेपर जैनसमाज लौकिक टिप्पणा मानने लगा, उसमें श्रावणादिभी महीने बढते हैं उस मुजब वर्ताव शुरू. किया, तबसे महामांगल्यकारी शांतिमय अति उत्तम पर्युषणा जैसे पर्व आराधनमेभी भेद पड़गया. और शासन नायक श्रीवर्द्धमान स्वामिकेछ कल्याणक नहीं मानने वगैरह कितनाही बातोंका विवाद
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