________________
श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः
प्रथम भागकी भूमिका पहिले इसको अवश्य पढिये. मांगलिक्यके करनेवाले श्रीस्थंभनपार्श्वनाथ जिनेश्वर भगवान् । को नमस्कार करके, श्रीजिनामाभिलाषी सर्व सज्जन महाशयोको निवेदन किया जाता है, कि-जन्म-मरण-रोग-शोक-आधि-व्याधि संयोग-वियोगादि-उपाधियुक्त दुतर संसार समुद्र के परिभ्रमणका दुःख निवारण करने के लिये, आत्महितैषी पुरुषों को जिनाज्ञानुसार शांतिपूर्वक धर्मकार्य करना चाहिये । जिसमें वर्तमानिक द्रव्यगच्छ परंपरा बहुत समुदायकी देखादेखीकी रूढिको अहितकारी जानकर स्यागना चाहिये । और सुधारेके जमाने में गच्छांतर भेदोंकी भिम भिन्न प्रवृत्ति देखकर शंकाशील होकर धर्मकार्यों में शिथिलता कर नाभी योग्य नहीं, किंतु 'मेरा सो सञ्चा' का आग्रह छोडकर मध्यस्थ बुद्धिसे गुणग्राही होकरके सत्यकी परीक्षाकरके उसको अंगीकार करना, यही मनुष्य जन्मकी सफलताका कारण है।
यद्यपि खंडनमंडनके विवाद में सत्यासत्यका विचार छोडकर अपनापक्ष स्थापन करनेके लिये शुष्कवाद या वितंडावाद करनेवाले आजकल बहुत लोग देखे जाते है. मगर दूसरेकी सत्यवात अंगी. कार करके अपना असत्य आग्रहको छोडनेवाले बहुतही थोडे देखने में आते हैं । जब दूसरेके पक्षका खंडन करनेके ईरादेसे उद्यम करनेमें आता है, तब उसपक्षवालेकी भनेक शास्त्र प्रमाणसहित युक्तिपूर्वक सत्यवातकोभी छोडकर भोले जीवोको अपना पक्ष सत्य दिखलाने के लिये शास्त्रोके आने पीछेके संबंध वाले सब पाठोंको छुपाकर थोडेसे अधूरे २ पाठ लिखते हैं. तथा शास्त्रकारोंके अभिप्राय वि. रूब उनके अर्थ करते हैं. या शास्त्रीय बातको झूठी ठहराने के लिये कुयुक्तिये लगाने में उद्यम किया जाता है. अथवा विषय संबंध छो. उफर विषयांतर लेकर निष्प्रयोजन व्यक्तिगत आक्षेप करने लग
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com