Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 11
________________ II] ६३ ४६ वृहद्रव्यसंग्रहः [विषय-सूची विषय पृष्ठ | विषय गुणस्थानों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा व कारण समयसार का नाश, कार्य समयपरमात्मा ४७, सार का उत्पाद अजीव द्रव्यकथन, मूर्त अमूर्त विभाग ४८ काल द्रव्य की सिद्धि उपयोग ४९ | अलोकाकाश के परिणमन में काल तीन प्रकार की चेतना | कारण है अजीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्य के परिणमन में कौन कारण ६३ काल का लक्षण अन्य द्रव्य स्वपरिणमन में स्वयं कारण अनन्त चतुष्टय सर्ग जीवों में साधारण है ४६ क्यों नहीं बंध अवस्था में गुणों की अशुद्धता ५० १४ रज्जु गमन में समय-भेद क्यों नहीं ६४ पुद्गल द्रव्य की विभाव व्यंजन पर्याय ५० अपध्यान का लक्षण वीतरागसम्यक्त्व-निश्चयसम्यक्त्व भाषात्मक शब्द-अक्षरात्मक.अनाक्षरात्मक५१ वीतराग-चारित्र का अविनाभूत ६५ अभाषात्मक शब्द-प्रायोगिक व श्रपिक -१ परमागम के अविरोध से विचार - ६५ जीव का शब्द-व्यवहार नयी अपेक्षा ५१ सर्वज्ञ वचन में विवाद नहीं करना ६५ द्रव्य-बंध, भाव-बंध | पंचास्तिकाय का कथन ६६,७४,७६ महास्कन्ध अस्ति व काय का लक्षण व कथन ६७, ६८ मनुष्य, नारक आदि जीव की विभाव पंचास्तिकायों में संज्ञादि से भेद ६७ व्यंजन पर्याय ५२ पंचास्तिकायों में अस्तित्व से अभेद ६७ धर्मद्रव्य गति में सहकारी-कारण ५३, ७६ | 'सिद्धत्व' शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय ६७ सिद्धगति के लिये सिद्धभगवान सहकारी- | निश्चय में सत्ता-काय से द्रव्य का अभेद ६८ कारण ___५४ | छहों द्रव्यों की प्रदेश संख्या अधर्मद्रव्य स्थिति में सहकारीकारण ५४,७६ कल द्रव्य एकप्रदेशी क्यों स्वरूप में ठहरने के लिये सिद्ध भगवान 'द्रव्य' पर्याय प्रमाण है सहकारी कारण ५५ | परमाणु-गमन में कालद्रव्य सहकारी ७० आकाश-द्रव्य अवकाश देने में सहकारी- परमाणु उपचार से काय कारण ५५, ७६ | जीव शुद्ध-नि- चयनय से शुद्ध है ७१ कर्म-नाश स्थान पर ही मोक्ष होता है ५६ मनुष्य आदि पर्याय व्यवहार नय से हैं ७१ लोकाकाश, अलोकाकाश ५६ । कालाणु उपचार से भी काय नहीं ७२ असंख्यातप्रदेशी लोक में अनंत द्रव्य कैसे ५७ | 'अणु' पुद्गलकी संज्ञा, काल अणु कैसे ७२ शुद्ध-निश्चय-नय शक्ति रूप ५८,७७ परमाणु शब्द का अर्थ ७२ व्यवहार-नय व्यक्ति रूप | प्रदेश का लक्षण तथा अवगाहन शक्ति ७२ व्यवहार नय से सब जीव शुद्ध नहीं ५८ | एक निगोद-शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे निश्चय व व्यवहार काल ५८, १३४ | उपादान कारण के समान कार्य ६१ लोक सूक्ष्म-बादर पुद्गलों से भरपूर ७३ काल द्रव्य की संख्या व निवास-क्षेत्र ६२ | अमूर्तिक आकाश की विभाग-कल्पना ७३ ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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