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ब्रह्मविलास में.
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गुन गहनहारी कहा जान लई है ॥ इनहीकी संगतसों संकट अनेक सहे, जानि वूझ भूल जाहु ऐसी सुधि गई हैं । आवत परेखो हंस ! मोहि इन बातनको, चेतनाके नाथको अचेतना क्यों भई है ॥ २६ ॥
कहाँ कहाँ कौनसँग लागेही फिरत लाल ! आवो क्यों न आज तुम ज्ञानके महल में । नैकहू विलोकि देखो अन्तरसुदृष्टिसेती, कैसी कैसी नीकी नारि ठाड़ी हैं टहलमें ॥ एकनतें एक वनी सुंदर सुरूप घनी, उपमा न जाय गनी वामकी चहल | ऐसी विधिपाय कहूं भूलि और काज कीजे, एतो कह्यो मानलीजे वीनती सहलमें ॥ २७ ॥
सवैया.
लाई हॉलालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी बनी हैं ? ऐसी कहूं तिहुं लोकमें सुन्दर, और न नारि अनेक घनी हैं | याहीतैं तोहि कहूं नित 'चेतन ! याहूकी प्रीति जु तोसों सनी है । तेरी औ राधेकी रीझि अनंत, सुमोपें कहूं यह जात गनी है ||२८||
कायासी जु नगरीमें चिदानंद राज करै, मायासी जु रानी पैं मगन बहु भयो है | मोहंसो है फोजदार क्रोधसो है कोतवार, लोभसो वजीर जहां लूटिवेको रह्यो है ॥ उदैको जु काजी मानें मानको अदल जानै, कामसेवा कानवीस आइ वाको कह्यो है । ऐसी राजधानी में अपने गुण भूल गयो, सुधि जब आई तबै ज्ञान आय गह्यो है ॥ २९ ॥
कवित्त,
कौन तुम कहां आये कौनें बौराये तुमहिं, काके रस रसे कछु सुध धरतु हो ? | कौन हैं ये कर्म जिन्हे एकमेक मानिरहे, अजहूं न लागे हाथ भाँवरि भरतु हो वे दिन चितारो जहां वीते
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කම්මණණමේන්