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। १० खवास आणंदराम रौ नमस्कार वाचिज्यो अपरं च पांडे पेमराजजी रौ नमस्कार अवधारिजो। गोसाई विष्णुगिरि को वन्दन अवधारिजो कृपा स्नेही रक्षणीयौ। अत्र भवता मत्र भवतामा जिगिमिषेच्छुभिरभिध्यानं विधीयते स्माभिः ।
॥ संवत्सप्तदश शताधिकै कोनाशीति (१७७६ ) तमे माघासित दल दुर्गा तिथाविदं लिपि कृतं पत्रम् । श्री ।
पत्रं महाराजान्तिके त्वरयालिखितं सतोत्रा तंत्रं निरस्य !
इनके पश्चात् महाराजा जोरावरसिंहजी उत्तराधिकारी हुए. वे भी अपने पूर्वजों की भांति खरसराचार्यों के परम भक्त थे। उन्होंने नवहर से निम्नोक्त पत्र बीकानेर में स्थित यति लक्ष्मी चन्द्रजी को दिया:
स्वस्ति श्रीमंत मियत्तयाऽप्रमित महिमानं परमात्मानमानम्य मनसा श्री नवहराज्जोरावर सिंहो विक्रमपुर वास्तव्य यति लक्ष्मीचन्द्र घु पत्रमुपढौकयते स्वकुशलोदंतमुदाहरति तत्रत्यं च कामयतेऽथ भवद्भि विसृष्टंयति प्रकृष्टैरुत्कृष्ट गुण निकर भृद्धि शिष्टैः श्छदन मंतःकरणे मामकीने भवत्संगममिव शर्म समुत्पादय हृद्य सत्पद्यरलंकृतं शस्त शंसि नयन गोचरी कृत्य सत्पद्य योजन कला कुशलान् भवतोऽजी गणम् तद्गत रहस्य च दवीयद्गमनं रूपं कर्ण जाह मानीय चिन्ता पारावारे मन्मनो निमग्नं तथात्र भवतो स्थिति रभि विश्चेत्तहि कर्हि चिदाययो स्संगममप्यभविस्यत् सांप्रतंतु तद् व्यवधानितं दृष्यते परं पत्र प्रत्यर्पणे दवीयसि तिष्टता निरालस्येन भवतायतितव्यं तथोप प्राप्त रूपे ग्रन्थाभ्यासे वासक्त प्रत्यहं भवितव्यं मन्तव्यं मिति च मिति मधु कृष्ण त्रयोदशी कर्मवाट्यां !!
___ इन महाराजाने उपयुक्त यति लक्ष्मीचन्द्रजी के गुरु यति अमरसीजी' की सुख सुविधाके लिए जो आज्ञापत्र भेजा उसकी नकल इस प्रकार है :
छाप॥ महाराजाधिराज महाराजा श्री जोरावरसिंहजी वचनात् राठौड़ भीयासिंहजी कुशलसिंहजी मुंहता रघुनाथ योग्य सुप्रसाद वांचजो तिथा सरसै में जती अमरसीजी छै सु थानै कामकाज कदै सु कर दीज्यो ऊपर......( सरौ) घणौ राखज्यो फागुण सुदि ४ सं० १७६६
इसके पश्चात् महाराजा गजसिंहजी का भी जैन यतियों से सम्बन्ध रहा है। उपाध्याय हीरानन्दजी के महाराजा को दिये हुए पत्र की नकलका अर्द्धभाग हमारे संग्रहमें है। उनके पुत्र महाराजकुमार राजसिंह जो पीछे से सं० १८४४ में बीकानेर की राजगद्दी बैठे थे, उन्होंने सं० १८४० में श्रीपूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को एक पत्र दिया जिसकी नकल इस प्रकार है :
१-ये उदयतिलक जी के शिष्य थे, आपका दीक्षा नाम अमरविजय था। भाप सुकवि थे, आपकी कई रचनाएं उपलब्ध है। इन्हींकी परम्परामें कुछ वर्ष पूर्व स्वर्गवासी हुए उपाध्याय श्री जयचन्द्रजी यति थे।
"Aho Shrut Gyanam"