Book Title: Bhagwatta Faili Sab Aur
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 24
________________ अज्ञान की स्वीकृति-ज्ञान की पहली किरण १६ __ जहां प्रतिमाएं हैं, वे स्थान तीर्थ कहलाते हैं। हम वहां शीष झुकाते हैं। इनके अलावा भी एक तीर्थ होता है जिसे मैं साधनापरक तीर्थ कहता हूँ। महावीर ने जो संघ बनाया, उसका नाम भी तीर्थ दिया गया। तीर्थ एक तो वे होते हैं जहां मन्दिर बनाए जाते हैं, दूसरे वे होते हैं जहां जन्म-जन्मान्तर से भीतर तीर्थ बना है। श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका-इन चारों के मिलने से जिस संघ का निर्माण हुआ उसे भी तीर्थ कहते हैं। तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले को तीर्थंकर कहा जाता है। प्रथम चरण श्रावक, दूसरा श्रमण । श्रावक वह जो सुनता है और श्रमण वह है जो सुनकर उसके अनुरूप आचरण करता है। श्रावक वह जो सत्संग में जाता है और प्रज्ञा-मनीषियों की वाणी सुनता है । श्रावक होना, श्रमण से पहले की स्थिति है। सुनना पहली शर्त है। जिसने सुना ही नहीं वो कैसे जान पाएगा कि सत्य क्या है ? वह कैसे जान पाएगा कि किस मार्ग से कल्याण और किस मार्ग से पतन मिलेगा। ___ इसके लिए उन लोगों के पास जाना और उन्हें सुनना जरूरी है, जिन्होंने कुछ पाया है। उन लोगों के पास जाओ, जिनका दीया जला हुआ है। उन लोगों को जानने समझने का प्रयत्न करो, जिन्होंने ज्ञान का स्वाद चखा है। जितना अधिक सुन सकोगे, सत्य-असत्य और पुण्य-पाप को जानने का मार्ग प्रशस्त होगा। ज्ञान पाने के दो तरीके हैं। पहला, स्वयं ज्ञान में प्रवेश कर जानो या किसी ऐसे ज्ञानी को ढूढ़ लो, जिसके सहारे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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