________________
सजल श्रद्धा में निखरती प्रखर प्रज्ञा
तो दोनों अर्थहीन हैं। ज्ञान कुछ कहता है और श्रद्धा कुछ । ज्ञान क्षमा की बात कर रहा है मगर श्रद्धा क्रोध का पल्ला पकड़े है तो विसंगतियाँ पैदा होने लगेंगी। श्रद्धा और ज्ञान एक दूसरे की ओर पीठ करके खड़े हैं। इनके मुह एक-दूसरे के आमने-सामने नहीं होंगे, तब तक समस्या बनी रहेगी।
श्रद्धा और ज्ञान जब तक एक नहीं बनेंगे तब तक चरित्र अधूरा ही रहेगा। आदमी कहता है, संसार छोड़ना चाहता हूँ, मगर छूटता ही नहीं है। दरअसल, आदमी ने खुद संसार को पकड़ रखा है। श्रद्धा तो संसार के प्रति अभी तक बनी हुई है मगर ज्ञान धर्म की ओर खींच रहा है। आदमी न तो संसारी बन पाता है और न ही संन्यासी ही हो पाता है । हमारा अध्यात्म भटक रहा है। आदमी न तो इधर का रह पाता है और न ही उधर का। धोबी घाट के गधे की तरह उसकी स्थिति हो जाती है। जब तक ज्ञान और श्रद्धा विपरीत राहों पर चलते रहेंगे, चरित्र भी डावांडोल रहेगा।
कोई श्रावक और साधु कहे कि राग और संसार को छोड़ना मुश्किल है तो समझो, अभी तक वह श्रावक और साधु की वास्तविक भूमिका से बहुत दूर है। वह असली राह नहीं पकड़ पाया है, भटक रहा है। सब कुछ करके भी निर्लिप्त भाव से रहो। जैसा ज्ञान है, वैसा ही चरित्र बनाने का प्रयास करो। नहीं तो हालत उस हाजी जैसी होगी जो “मक्का गया, हज किया, बनकर पाया हाजी ; आजमगढ़ में जब लौटा, रहा पाजी का पाजी" ।
नतीजा शून्य ही रहेगा। भले ही बार-बार हज कर प्रायो। बिल्ली सौ चूहे खाकर संन्यास ले ले तो भी लोग विश्वास नहीं कर पाते।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org