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साक्षीभाव है आँख तीसरी
सूत्र है :
"जह फुल्लं गंधमयं भवदि ह खीरं स धियमयं चावि । तह दंसणं हि सम्मं णाणमयं होइ रुवत्थं ॥
जैसे पुष्प गन्धमय और दूध घी मय होता है, वैसे ही सम्यक्-दर्शन, ज्ञानमय रूपस्थ होता है ।
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स्वयं की ज्ञानमय स्थिति का नाम ही सम्यक् - दर्शन है । अन्तर- जगत् ज्ञानमय हो और बहिर्जगत् के प्रति तटस्थता - यही सम्यक् - दर्शन की मूल पहचान है । ज्ञानमय स्थिति में जीने का अर्थ आत्मजागरुकता के साथ अस्तित्व का विहार करना है ।
कुन्द - कुन्द के सम्पूर्ण अनुभवों का निचोड़ 'दर्शन' है । यह दर्शन फिलोसॉफी नहीं है, वरन् सेल्फ रिमेम्बरिंग है, चॉयसलेस अवेयरनेस है। यह दर्शन हमारे बोध की वह सजगता है, जिसमें चयन नहीं होता, वरन् तटस्थता होती है । दो में से किसी का भी चयन न करना, निर्णय के लिए मन का मौन बने रहना ही तटस्थता है । यह मौन जीवन का सौभाग्य है । कहने में यह मौन जरूर है, पर अपनी ज्ञानमय स्थिति बनाये रखने के लिए यह चेतना का 'शंखनाद' है ।
ज्ञान भीतर की चीज है, तटस्थता बाहर के लिए है । सम्यक् - दर्शन ज्ञान और तटस्थता के बीच की कड़ी है। दर्शन ही वह सेतु है, जो भीतर और बाहर दोनों में सन्तुलित समायोग स्थापित करता है । दर्शन देखता है, इसलिए दर्शन कसौटी है | दर्शन सम्यक्त्व को देखता है । व्यक्ति का ज्ञान
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