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ध्यान : मार्ग एवं मार्गफल
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विचार, बीज का अंकुरण है। शरीर की गतिविधियां तो उसी बीज की फसल है।
तादात्म्य है, इसीलिए तो शरीर को भूख लगने पर कहते हो कि मुझे भूख लगी है। उत्तेजना पैदा होती है विचारों में जब कि तुम कहते हो—'मैं उत्तेजित हूँ।' सम्मोहित हुआ है.-'मन' पर तुम कहते हो कि मैं फिदा हूँ। जो यह समझता है कि मैं मात्र विशुद्ध अस्तित्व हूँ। मन, वचन और शरीर के साथ मेरा मात्र सांयोगिक सम्बन्ध है । उनकी भाषा सिर्फ इतनी ही होगी—'भूख लगी है।' 'मैं उत्तेजित हूँ', ऐसा नहीं मात्र इतना ही कहेगा–'उत्तेजना है'। जहाँ मैं को जोड़ा वहीं चूक गये। मन से अलग होना, कठिन इसलिये है क्योंकि यह हम पहचानते ही नहीं कि हम मन से अलग हैं। हम मन हैं, ऐसा मानना ही तो मन की गुलामी है। मन में चाहे अच्छा आये और बुरा उसका जिम्मा हम पर नहीं है। हम पर केस तो तब चलेगा जब हमारी कृति मन के मुताबिक होगी, जो यह मानता है कि मैं मन नहीं हूँ, मन की बुराईयों का उससे कोई ताल्लुकात नहीं।
चूँकि मन में विकार है, इसलिए वह इधर-उधर डोलता है, नींद हो, तब भी वह जोर पकड़ता है। विवेक ही वह मीडिया है, जो मन को रोकता है। अपने विवेक को होश में लाप्रो और विवेक से उसे अपने से अलग पहचानो। मन के अनुकूल होना भी ठीक नहीं है और हठात् उसके
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