________________
सम्भावनाएँ आत्म-अनुष्ठान की
१०६
के पास गया और यही बात उससे कही और माफी माँगने के लिए अपना सिर झुका लिया मगर वह तपस्वी अड़ा रहा । मैंने छोटे भाई से कहा -- उपवास किये बड़े भाई ने, पर फल के भागी तुम ब 1
मन से की गई तपस्या, तन की तपस्या से अधिक असरकारी है । तपस्या अपनी इच्छाओं पर विजय के लिए की जाती है इसलिए व्यक्ति भोजन करते हुए भी तपस्वी हो सकता है । तप-संयम को भोजन के त्याग मात्र से जोड़ने की भूल न करिएगा । तप-संयम के पीछे की मूल भावना को देखो । तन और मन दोनों से तपस्या हो तो वह फलदायी होती है । आहार के प्रति आसक्ति कम करना ही तपस्या की शुरुआत है। आहार आनन्दपूर्वक करें, श्रासक्तिपूर्वक नहीं ।
केवल तप से गाड़ी पार लगे, यह सम्भव नहीं है । बगैर संयम के तप भी कषाय-वर्धक हो जाता है । तप से कषाय - क्रोध कम होते हो या इच्छाओं का निर्मूलीकरण हो, ऐसा व्यवहार में देखने में नहीं आता । बड़े- बड़े तपस्वियों को क्रोधित पाओगे | ऐसा क्यों ? मैं तो यही कहूँगा कि संयम की पहली सीख न ली । तन को मारा, मन को न जीता, तो वह तप 'तप' नहीं, वरन् ताप है । संयमपूर्वक किया गया थोड़ा-सा तप भी महाफलदायी होता है ।
I
इसलिए कुन्दकुन्द की साधक-सन्तों को यही सलाह है कि चारित्र को ज्ञान से शुद्ध करो और लिंग को सम्यग् दर्शन से । संयम को जीवन में पहले लाओ और फिर तप में प्रवृत्ति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org