Book Title: Bhagwatta Faili Sab Aur
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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भगवत्ता फैली सब ओर
आत्मा अमर है, अभौतिक शक्ति है, जिसका अस्तित्व शरीर में और शरीर के बाहर भी बना रहता है। स्वतन्त्र रूप में अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ है। अफलातून ने प्रात्मा को 'शाश्वत प्रत्यय' कहा है। प्रत्यय वह है जिसकी प्रतीति हो सके। आत्मा अनुभव गम्य है। आत्म ज्ञान का अर्थ ही
आत्म प्रतीति है। आत्मा तक पहुँचने के लिए हमें उन सारे तादात्म्यों से ऊपर उठना होगा जो प्रात्म-अतिरिक्त हैं। ऊपर उठने का अर्थ स्वयं का किसी से विच्छेद नहीं है वरन् अपनी पंखुड़ियों को कीचड़ से लिप्त होने से बचाना है। जैसे नौका सागर में चलती है, सागर से अलग होकर नहीं वरन् सागर से ऊपर उठकर चलती है। देहातीत होने का मायना यही है कि अपने आपको देह से ठीक वैसे ही उठा लो जैसे नौका सागर से ऊपर होती है। नौका साधन है, पार लगने का। पर तभी, जब नौका सागर से ऊपर हो। जहां नौका पर सागर आना शुरू हो गया, वहाँ नौका, नौका न रह पायेगी पत्थर की शिला हो जायेगी, वहाँ पार लगना, हो ही न पायेगा, मंझधार में ही डूबना होगा।
शरीर भी साधन है 'शरीरमाद्य खलु धर्मसाधनम्' । शरीर धार्मिकता का साधन है। साधन तभी तक सहायक होता है जब तक साधन हावी न हो। साधन का साध्य पर चढ़ आना ही पुरुषार्थ का असाध्य रोग है। संसार, सागर है। शरीर, नौका है जीव, नाविक है। साधक लोग समझदारी और जागरुकता को पतवारों से पार हो जाते हैं। स्वभाव में जीना ही आत्म-जीवन है। विभाव से स्वभाव में चले आने का नाम ही अध्यात्म-यात्रा है।
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