________________
ध्यान : मार्ग एवं मार्गफल
७१
प्रतिक्रमण तो, वापसी की प्रक्रिया है। चित्त की प्रवृत्तियाँ जहाँ-जहाँ हुई हैं, वहाँ-वहाँ से स्वयं का लौट आना, अन्तर्मन्दिर की तीर्थयात्रा है।
आत्मा, हमारी मूल सम्पदा है। वह कहीं और नहीं, कस्तूरी तो कुण्डल में ही समायी है । कबीर का बड़ा प्रसिद्ध सूक्त है-'कस्तूरी कुण्डल बसै'। हमारी सम्पदा स्वयं हमारे पास है, मूढ़ पुरुष संसार के रेगिस्तान में महक का मारा, दर-दर भटक रहा है। सब कुछ विक्षिप्त और लहूलुहान हुआ चला जा रहा है। इसलिए प्रात्मा की खोज किसी चीज को तलाशना नहीं है, यह तो स्वयं का स्वयं में होना है।
सुख और आनन्द का मूल स्रोत तो अन्तर्जगत की ही जमनोत्री में है। बाहर के जगत में, सुख के कोरे संवाद मिल सकेंगे, मगर यह मत भूलो कि जिनसे हम सुख के संवाद कर रहे हैं, वे पहले से ही दुःखी हैं। अपना दुःख हल्का करने के लिए पड़ोसी के घर जा रहे हैं जबकि पड़ोसी खुद पहले से ही परेशान है। यों दु:ख हल्का नहीं होता बल्कि सान्त्वना के नाम पर दुःख का विनिमय होता है। हम अपना दुखड़ा रो रहे हैं और पड़ौसी अपना दुखड़ा। किसी से तसल्ली पाने के बजाय उस कारण को ढूढ़ने का प्रयास करें जिससे दुःख पैदा होता है, उस स्थान को तराशने की चेष्टा करें जहाँ दु:ख के काँटे लगे हैं। हमारा मन ही तो वह स्थान है, कषाय और राग-वैमनस्य ही तो वे कारण हैं, जिनसे तनाव, घुटन और वैचारिक प्रतिस्पर्धा है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org