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साक्षीभाव है प्राँख तीसरी
के भीतर तो माखन होता है और बाहर उज्ज्वलता, जीवन का दर्शन ऐसी ही अपेक्षा रखता है । भीतर हो जागरुकता और बाहर हो तटस्थता, कुन्दकुन्द की दृष्टि में यही व्यक्ति की ज्ञान में रूपस्थ स्थिति है ।
दर्शन का मूल सम्बन्ध 'सम्यक्त्व' से है । सम्यक्त्व का सम्बन्ध सत्य और शुद्धता से है । जैसे सोने का 'चौबीस केरेट' खालिस होना उसकी शुद्धता है । ऐसे ही सत्य को सत्य- रूप और असत्य को असत्य - रूप जान-मान लेना, जीवन का सम्यक्त्व है । इसलिए दर्शन हंस-दृष्टि है, जो अलग-अलग कर देती है दूध और पानी को करण और मोती को जड़ और चेतन को, सत् और असत् को, अन्धकार और प्रकाश को ।
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यह मन की विक्षिप्तता ही है कि व्यक्ति कभी तो अपना सम्यक्त्व बाहर तलाशता है और कभी तो उसे, भीतर तलाश लाजिम लगती है । बाहर ढूंढने जाओ तो वह भीतर की प्रेरणा देगा । अन्तर्यात्रा शुरू करो तो अजीब-अजीब उबासियां खायेगा । कैसा द्वन्द्व मचा है इस जीवन के द्वार पर ! द्वन्द्व इसलिए है कि व्यक्ति ने बाहर और भीतर दोनों के बीच द्वार की बजाय दीवार खड़ी कर दी है। जबकि दोनों के बीच कोई सेतु और संयोजन होना चाहिए । दर्शन का सेतु नहीं है, इसीलिए तो असलियत भी मुखौटे पहनने लग गयी है । भीतर कुछ हो जाती हो और बाहर कुछ और । भीतर और बाहर तो आखिर है तो जीवन के ही परिसर । दीवारें खड़ी कर रखी हैं, इसीलिए तो 'भीतर' और 'बाहर' जैसे शब्द कहे जा रहे हैं । दीवार गिरा दो तो न बाहर होगा, न अन्दर । सब कुछ समतल होगा । दर्शन का काम दीवारों को गिराना
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