________________
४८
भगवत्ता फैली सब ओर
है, परतों को उखाड़ना है ताकि ज्ञान और आचरण में कहीं कोई देशी-विदेशी-प्रादेशिक भेद-भाव-रेखा न हो।
इन्द्रियां बाहर खुलती हैं। इसलिए हम वास्तविकताओं की खोज बाहर ही करने लग गये हैं। भीतर की खोज तो तब चालू करते हैं, जब बाहर की खोज व्यर्थ अहसास होने लग जाती है। धन खोजते थक गये तो धर्म को पकड़ लिया। अब, विचित्रता तो यह है कि बाहर की खोज का अभ्यास इतना अधिक हो गया है कि धर्म भी बाहर ही खोजा जा रहा है। धर्म तो आत्म-स्वभाव है, अन्तर्जगत की अस्मिता और प्रफुल्लता है।
बाहर धर्म का व्यवहार है और भीतर धर्म का ज्ञान है । बाहर तटस्थता है और भीतर ज्ञान का अवस्थान है। असली प्रतिष्ठा तो भीतर ही है। लोक में बने हुए सारे मन्दिर, परमात्मा की स्मृति के लिए हैं। सर्वस्व वे ही नहीं हैं। वे तो सर्वेश्वर तक पहुँचने के लिए 'कुछ' हैं। सर्वेश्वर का 'सर्व' तो अन्तर्जगत् की ज्ञानमय जागरुक दशा में है। असली मन्दिर तो वही है। परमात्मा परम चैतन्य है। इसलिए उसकी असली सम्भावना वहीं की जा सकती है, जहाँ हमारे चैतन्य-प्रदेश हैं।
बाहर के जरिये भीतर तक पहुँचो। उन साधनों को अपनाने में कोई ऐतराज नहीं है, जिनसे भीतर की याद हो आती है, अन्तर्यात्रा चालू हो जाती है।
मैं तो तेरे पास में। खोजी होय सो तुरते मिलिहै, पल भर की तलाश में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org