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भगवत्ता फैली सब प्रोर
वक्षस्थल पर ही घूमती रहती है । तुम्हारे स्वभाव में तो है वासना और बाना है ब्रह्मचर्य का, यह सहज मार्ग नहीं वक्र मार्ग है । ब्रह्मचर्य का बाना तो तब सार्थक होता है, जब अन्तस्थल में ब्रह्म की वासना मुक्त चर्या होती है ।
राजचन्द्र जैसे अध्यात्म साधक कहते हैं
वह साधन बार अनन्त कियो । तदपि कछु हाथ हजु न पङ्यो ।
ऐसा नहीं है कि हमने अब तक कभी साधु जीवन अंगीकार न किया हो । अपने गुजरे हुए जन्मों में कई बार साधु बने होंगे, फिर भी स्थिति तदनुरूप ही है । यम किये, नियम लिये, संयम भी पाला बनवास भी लिया, पद्मासन भी किया, मौन प्राणायाम भी किया, शास्त्र भी पढ़े और शास्त्रार्थ भी किया । इसके बाद भी तुम्हारे क्या हाथ लगा ?
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जो
हुआ बाह्य भूमिकाओं पर आधारित था । अगर जुड़े होते अन्तस्थल से तो भावश्रेणि के मार्ग से कहाँ के कहाँ पहुँच गये होते । स्थिति तो यह है कि हम अपनी पन्द्रह माना जिन्दगी तो दुनियादारी / दुकानदारी में पूरी करते हैं । धर्मध्यान में तो मुश्किल से एक माना जिन्दगी जाती होगी और वह भी ऊपर-ऊपर । पन्द्रह मिनट मन्दिर में लगाते हो और पौने - चौबीस घण्टे संसार में । पाना तो चाहते हैं, परमात्म स्वरूप को और उसे रख छोड़ा है अपनी आवश्यकताओं की कतार में सबसे अन्त में ।
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