________________
पकड़ का छूटना संन्यास की पहल
५६
परिवर्तन, नाम परिवर्तन और स्थान-परिवर्तन ही साधुत्व की सही कसौटी नहीं है। यहाँ से साधुत्व की शुरुआत भले ही मानी जाती हो, उसका विकास तो भावनिद्रा के टूट जाने पर ही सम्भव है।
द्रव्यलिंग तो हर किसी के बलबूते की बात नहीं हो सकती। भावलिंग तो विचारों के परिवर्तन की कहानी है।
संन्यास विचारों की आध्यात्मिक क्रान्ति है। यदाकदा ऐसा होता है कि व्यक्ति किसी की प्रेरणा से, उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षित संन्यस्त हो जाता है।
किसी की प्रेरणा से जीवन भर के लिए साधु का बाना तो पहन लेता है मगर जीवन भर के लिए प्राचार-शुद्धि, भाषा-शुद्धि, विचार-शुद्धि और मनो-शुद्धि की पहल कठिन है। बाहर का त्याग-वैराग्य, महत्त्व अवश्य रखता है, किन्तु जीवन के मूल्य अन्तर-प्रवृत्तियों पर आधारित हैं। त्याग की महिमा भीतर भी हो और बाहर भी। बाहर हो पर भीतर न हो तो जीवन के अन्तस्तल में अध्यात्म प्रतिष्ठित न हो पायेगा। भीतर हो पर बाहर न हो तो पूर्ण न होते हुए भी अपूर्ण न कहलायेगा। जहाँ बाहर और भीतर दोनों के बीच सन्तुलन का समायोजन है, वहाँ 'रिम-झिम, रिम-झिम बरसे नूरा, नूर जहूर सदाभर पूरा'। जैसा भीतर है वैसा ही बाहर हो । जैसा बाहर है वैसा ही भीतर संचरित हो। बाहर का त्याग
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org