Book Title: Bhagwatta Faili Sab Aur
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 42
________________ सजल श्रद्धा में निखरती प्रखर प्रज्ञा सपने अचेतन मन के हैं। आराम-विश्राम का समय नहीं निकाल पा रहा है आदमी। वह दिन-रात भटकता ही रहता है। मन में इधर-उधर से विचार भटकते रहते हैं। आदमी बाहर से तो संयम कर भी ले, मगर भीतर का संयम नहीं कर पाता। संयम का अर्थ है-अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना, अपने आपको सम्यक् दिशा देना, अपनी इन्द्रियों पर अनुशासन करना। इस नियन्त्रण का यह अर्थ कतई नहीं है कि आदमी अपनी इच्छाओं को दबा ले। दमित इच्छाएं और ज्यादा नुकसान दायक होती हैं। पुराने जमाने में अपराध करने पर सजा भी भयंकर मिलती थी। किसी ने चोरी कर ली और पकड़ा गया तो उसे हाथ काटने की सजा मिलती थी। किसी ने पराई स्त्री पर नजर डाल दी तो उसकी आँखें फोड़ दी जाती थीं। खून का बदला खून होता था। यह आदिम व्यवस्था तो अब समाप्त हो गई है। जरा विचार करें-हाथ काटने और प्रांख निकालने से समस्या का कितना समाधान हुआ ? अादमी में भीतर से सुधरने की इच्छा पैदा नहीं हुई। एक हत्यारे को अपने किए का पछतावा हो, वह पश्चाताप के लिए प्रेरित हो, यही तो असली परिवर्तन है। हमारे यहाँ की जेलों की हालत ऐसी है कि वहाँ जाकर आदमी सुधरता नहीं है, बल्कि और गम्भीर अपराध करने की ओर प्रवृत्त होता है। भावनाओं को जितना दबाया जाएगा, वे और तेजी से उभर कर पाएँगी। हमने स्प्रिंग को देखा है, उसे हम जितनी जोर से दबाएंगे, वह उससे दुगुने वेग से उछलेगी। संयम एक जगह ही नहीं करना है। शरीर का संयम, मन का संयम, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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