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अज्ञान की स्वीकृति-ज्ञान की पहली किरण
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बंदर चचित हैं। पहला बन्दर सन्देश देता है कि 'बुरा मत देखो', दूसरा बन्दर कहता है 'बुरा मत सुनो', तीसरा बन्दर हमें सीख देता है कि 'बुरा मत बोलो' । आचार्य कुदकुद के रत्न त्रय भी इसी कोटि के हैं। वे कहते हैं तुम्हारा ज्ञान मिथ्या न हो, तुम्हारा आचरण गलत न हो। तुम्हारा ज्ञान सम्यग् हो, तुम्हारा आचरण भी सम्यग् हो।
जिसने बुरा देखा, वह बुरा सुनेगा और बुरा बोलेगा भी। इसलिए पहली जरूरत इस बात की है कि भीतर की प्यास जगायो। हम सत्संग में इसीलिए तो जाते हैं। श्रवण ही ज्ञान का आधार है । बुरा न सुनना-सम्यग् ज्ञान, बुरा न देखना-सम्यग् दर्शन और बुरा न बोलना–सम्यग् चरित्र है। कुन्दकुन्द के वचन हैं"सूई जहा असुत्ता, णासदि सुत्ते सहा णो वि। पुरिसो वि जो ससुत्तो, रण विरणासइ सो गयो वि संसारे॥"
सूई अगर घास के ढेर में या कचरे में गिर जाए तो कैसे निकालेंगे। उस सूई में यदि धागा लगा हो तो सूई ढूढी जा सकती है । कुन्दकुन्द कहते हैं कि सूई में यदि धागा हो तो उसे ढूढ़ना आसान है। इसी तरह स्वाध्याय करते हो, सत्संग करते हो तो संसार में कहीं भी चले जाओ, आपकी सूई नहीं गुम होगी। वैसे ही ज्ञान-सूत्र में पिरोई प्रात्मा भी कहीं नहीं खोती। सत्संग से ही ज्ञान का, अस्तित्व का बोध होता है। यही मूल तत्त्व है।
साधक ज्ञान की खोज बाहर करता है। यही तो गलती करता है आदमी। ज्ञान तो स्वयं के भीतर है, मगर आदमी
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