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भगवत्ता फैली सब ओर
श्रद्धा जीवन का मातृत्व है । मातृत्व जीवन के द्वार पर एक नई पहल है । मातृत्व का अर्थ है कुछ नया पैदा हुआ । जीवन की सार्थकता कुछ नया पैदा करने में ही है । बगैर सन्तान, आदमी आदमी रहेगा और महिला - महिला रहेगी। वे पिता और माता नहीं बन पाएंगे । इसलिए जब बच्चा पैदा होता है तो आदमी की गोद में एक पिता भी पैदा होता है । महिला की कोख में एक माँ पैदा होती है ।
श्रद्धा मातृत्व है, पितृत्व है । श्रद्धा के आते ही अध्यात्म में फूल खिलने लगते हैं । श्रद्धा रस है, प्रेम का पारावार है, आत्म-विश्वास की पहल है । कुछ हो गुजरने और कर गुजरने की भावना, बगैर श्रद्धा हो ही नहीं सकती । जीवन में जब तक श्रद्धा का सेतु न होगा, ज्ञान और आचरण के बीच दूरी बनी रहेगी । इसलिए भले ही अध्यात्म ही क्यों न हो, बगैर श्रद्धा तो अध्यात्म भी मरुस्थल है, रसहीन है, आनन्द शून्य है ।
श्रद्धा तो प्राप्त ज्ञान के प्रति समर्पित होने का नाम है । जो श्रद्धा ज्ञान से आचरण की यात्रा करवाती है, जीवन में इससे बड़ी ज्योतिर्मय पहल और कौनसी होगी ? इसलिए ज्ञान और चारित्र्य के बीच जन्मी श्रद्धा न तो कभी अन्धानुसरण हो सकती है और न ही अन्ध विश्वास ।
बगैर श्रद्धा मनुष्य का ज्ञान पाण्डित्य मात्र होगा । और एक बात खुलकर कह देना चाहता हूँ कि कोरा पाण्डित्य तर्क-वितर्क का भ्रम जाल ही बुनेगा। किसी व्यक्ति का ज्ञान चरित्र नहीं बनता है तो यह पक्की बात है कि वह बीच में
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