Book Title: Bhagwatta Faili Sab Aur
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 39
________________ भगवत्ता फैली सब ओर भी करूंगा। मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा है। मैं आपको कुछ मानता ही नहीं, तो मैं प्रणाम भी क्यू करूगा और आपके चरणों में क्यों झुकूगा ? श्रद्धा तो वह साधन है जिसके माध्यम से हम ज्ञान के आकाश में विचरण कर सकते हैं। जहां श्रद्धा और ज्ञान मिल जाते हैं वहीं चरित्र का निर्माण होने लगता है। वहां उधार का नहीं, स्वयं का चरित्र होता है। जो होता है, जैसा होता है, उज्ज्वल और ईमानदारी से भरा होता है। ज्ञान है तो श्रद्धा जरूरी है और श्रद्धा है तो ज्ञान जरूरी है। श्रद्धा नहीं हो तो ज्ञान बेकार है और ज्ञान नहीं है तो श्रद्धा पैदा नहीं होगी। चील पासमान में उड़ती है मगर उसकी नजर नीचे जमीन पर रहती है। जहाँ भी उसे मांस नजर आता है, वह नीचे झपट्टा मारती है और अपना अभीष्ट लेकर पुनः उड़ जाती है। आदमी चाहे जितना ऊपर चला जाए, शिखर पर पहुँच जाए, जब तक उसका श्रद्धा भाव खोखला बना रहेगा, दीमक उसे खोखला बनाती रहेगी, तब तक व्यक्ति का ज्ञान कभी चरित्र नहीं बन सकेगा। जब तक ज्ञान चरित्र में परिवर्तित नहीं होगा, तब तक ज्ञान बेकार है। ऐसा ज्ञान 'मुह में राम, बगल में छुरी' वाला कहलाएगा। मनुष्य का चरित्र ज्ञान के अनुरूप नहीं होगा तो वह कहेगा कुछ और करेगा कुछ। उसकी कथनी और करनी में एकरूपता नहीं हो सकती। उसे दो मुखौटों में जीवन बिताना पड़ेगा। अन्दर और बाहर विरोध होगा तो व्यक्ति प्रात्मप्रवंचना में ही डूबा रहेगा, स्वयं को धोखा देता चला जाएगा। यही तो सबसे बड़ा पाप है। मन्दिर में, परमात्मा के गाल पर चांटा लगाकर इतना धोखा नहीं खायोगे जितना अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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