Book Title: Bhagwati sutram Part 02
Author(s): Abhaydevsuri,
Publisher: Agamoday Samiti
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निहारिम, कडेवरस्यानिहरणीयत्वात् , 'नियम अप्पडिकम्मत्ति शरीरप्रतिकर्मवर्जितमेव, चतुर्विधाहारप्रत्याख्याननि | पन्नं चेदं भवतीति, 'तं चेव'त्ति करणान्निर्हारिममनिर्दारिमं चेति दृश्य, सप्रतिकम्मैव चेदं भवतीति ॥ त्रयोदशशते | सप्तमः ॥१३-७॥
___अनन्तरोद्देशके मरणमुक्तं, तच्चायुष्कर्मस्थितिक्षयरूपमिति कर्मणां स्थितिप्रतिपादनार्थोऽष्टम उद्देशकस्तस्य चे मादिसूत्रम्। कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ एवं बंधट्टिइ
उद्देसो भाणियको निरवसेसो जहा पन्नवणाए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ४९७)॥१३-८॥ | 'कति ण'मित्यादि, 'एवं बंधठिइउद्देसओ'त्ति 'एवम्' अनेन प्रश्नोत्तरक्रमेण बन्धस्य-कर्मबन्धस्य स्थितिबन्ध| स्थितिः कर्मस्थितिरित्यर्थः तदर्थ उद्देशको बन्धस्थित्युद्देशको भणितव्यः, स च प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमपदस्य द्वि|तीयः, इह च वाचनान्तरे सङ्घहणीगाथाऽस्ति, सा चेयं-पयडीणं भेयठिई बंधोवि य इंदियाणुवाएणं । केरिसय जह|न्नठिई बंधइ उक्कोसियं वावि ॥१॥ अस्याश्चायमर्थः-कर्मप्रकृतीनां भेदो वाच्यः, स चैवं-'कइ णं भंते ! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अह कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिजं दसणावरणिज'मित्यादि, तथा 'नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-आभिणिवोहियणा
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